Thursday, March 29, 2012

राजस्थान में जन जागरण एवं स्वतन्त्रता संग्राम [2]


राजनीतिक जागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में विभिन्न तत्त्वों का योगदान
1857 की क्रांति की भूमिका यद्यपि राजस्थान में कतिपय स्थानों पर अत्यधिक प्रभावी रही थी किंतु अधिकांश राज्य इससे अछूते रहे। 1857 की क्रांति की असफलता के कारण देश के अनुरूप राजस्थान में भी अंग्रेजो का वर्चस्व स्थापित हो गया (राजस्थान के अधिकांश शासक अंग्रेजो के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति प्रदर्शन की दौड़ में शामिल हो गये। ऐसा करके वे स्वयं को गौरवान्वित समझने लगे। ऐसी परिस्थितियों में राज्य की प्रजा में भी अंग्रेजों की अजेयता की भावना का घर करना अस्वाभाविक नहीं था। राजकीय कार्यों एवं जन कल्याण की भावना के प्रति शासकों की उदासीनता ने प्रजा के कष्टों को असहनीय बना दिया। सामन्तों की शोषण प्रवृत्ति यथावत बनी। परन्तु सदैव एक स्थिति बनी नहीं रह सकती है। स्थिति में बदलाव के संकेत बाहर से नहीं, अन्दर से ही आने थे। राज्य की जनता ही बदलाव की अपवाहक बनी। देरी से ही सही, राजस्थान में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। राष्ट्र के सोच में परिवर्तन के साथ देशी रियासतों में भी राष्ट्रवादी भावनाओं ने जन्म लिया। जन आन्दोलनों ने भी स्थानीय स्तर पर अपनी जगह बनाकर माहौल को उत्तेजित कर दिया। राज्य की दमनात्मक नीतियों एवं ब्रिटिश सरकार के कठोर दृष्टिकोण के बावजूद जनता ने अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी। शासन में सुधार एवं भागीदारी के लिए आवाज उठाई। आजादी की अन्तिम लड़ाई के दौरान राष्ट्र के बड़े नेताओं को इस बात का अहसास हो गया था कि अब देशी रियासतों को पराधीन बनाकर अधिक समय तक नहीं रखा जा सकता। आखिर, राष्ट्र की स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् राजस्थान की देशी रियासतों का भी भारतीय संघ में विलीनीकरण हो गया।


  यह कहने आवश्यकता नहीं है कि राजस्थान में स्वतन्त्रता से पूर्व जनजागरण लाने का कार्य जिन नेताओं ने किया, उनमें देशभक्ति का जलवा था। वे समकालीन समाज एवं राजनीति को लेकर चिन्तित एवं व्यथित थे। वे क्रांतिकारी विचारों से युक्त थे। उनके नजरिये में स्वतन्त्रता आन्दोलन से तात्पर्य केवल राजनीतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने से नहीं था। वे सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों के निराकरण, स्त्रियों की दुर्दशा सुधारने तथा कृषकों का शोषण, निरक्षरता, बेगारी आदि के उन्मूलन के लिए भी कृत संकल्प थे। वे चरखा, खादी, ग्राम-स्वावलम्बन, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के पक्ष में थे। देशी रियासतों में 1934 और विशेष रूप से 1938 के बाद चला संघर्ष भी इसी स्वतन्त्रता संघर्ष का हिस्सा था।

  राजनीतिक जागरण एवं स्वतन्त्रता आन्दोलन में जिन मुख्य तत्त्वों का योगदान रहा, उनका संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है -


जनजातीय एवं किसान आन्दोलन
राजस्थान में राजनीतिक चेतना का श्रीगणेश कर यहाँ की जनजातियों एवं किसानों ने इतिहास रच दिया। राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में भील, मीणा, गरासिया आदि जनजातियाँ प्राचीन काल से रहती आयी हैं। अपने परम्परागत अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में इन्होंने अपना विरोध प्रकट किया, चाहे वह फिर अंग्रेजों के विरुद्ध हो या फिर शासक के विरुद्ध । यहाँ के किसानों ने भी अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों, शोषण एवं आर्थिक मार के विरोध में अपना विरोध जताकर राजनीतिक व्यवस्था को चुनौती दे डाली। अंग्रेजों का आतंक, रियासतों की अव्यवस्था, जागीरदारों का शोषण, कृषकों के परम्परागत अधिकारों का उल्लंघन आदि कारणों से कृषकों में असंतोष पनपा। जागीरी क्षेत्र में कृषकों का असंतोष जागीरदारों के जुल्मों के विरुद्ध था। जागीरदारों को कृषकों के हितों की कोई चिन्ता नहीं थी। जागीरदार अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र रहने के कारण उसे शासकों अथवा अंग्रेज सरकार से संरक्षण प्राप्त था।

 राजस्थान में स्वतन्त्रता आन्दोलन एवं आदिवासियों में जनजागृति का शंखनाद फूंकने का योगदान देने वालों में मोतीलाल तेजावत (1888-1963) का विशिष्ट स्थान है। तेजावत का जन्म उदयपुर जिले में 14एक सामान्य ओसवाल परिवार में हुआ था। तेजावत अपने बलबूते पर एक बड़ा आन्दोलन एकी आन्दोलन (1921-22) खड़ा करने में सफल रहा। उसने जिस प्रकार आदिवासियों का विश्वास प्राप्त किया, वह एकदम अकल्पनीय लगता है। तेजावत से पहले गोविन्द गुरू (1858-1931) ने बागड़ प्रदेश में आदिवासी भीलों के उद्धार के लिए भगत आन्देालन (1921-1929) चलाया था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने 1883 में सम्प सभा की स्थापना कर इसके माध्यम से भीलों में सामाजिक एवं राजनीतिक जागृति पैदा कर उन्हें संगठित किया।

  गोविन्द गुरु ने मेवाड़, डूँगरपुर, ईडर, मालवा आदि क्षेत्रों में बसे भीलों एवं गरासियों को सम्प सभा के माध्यम से संगठित किया। उन्होंने एक ओर तो इन आदिवासी जातियों में व्याप्त सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न किया तो दूसरी ओर, उनको अपने मूलभूत अधिकारों का अहसास कराया। गोविन्द गुरु ने सम्प सभा का प्रथम अधिवेशन 1903 में गुजरात में स्थित मानगढ़ की पहाड़ी पर किया। इस अधिवेशन में गोविन्द गुरु के प्रवचनों से प्रभावित होकर हजारों भील-गरासियों ने शराब छोड़ने, बच्चों को पढ़ाने और आपसी झगड़ों को अपनी पंचायत में ही सुलझाने की शपथ ली। गोविन्द गुरु ने उन्हें बैठ-बेगार और गैर वाजिब लागतें नहीं देने के लिए आह्वान किया। इस अधिवेशन के पश्चात् हर वर्ष आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का अधिवेशन होने लगा। भीलों में बढ़ती जागृति से पड़ोसी राज्य सावधान हो गये। अतः उन्होंने ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की कि भीलों के इस संगठन को सख्ती से दबा दिया जावे। हर वर्ष की भाँति जब 1908 में मानगढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का विराट् अधिवेशन हो रहा था, तब ब्रिटिश सेना ने मानगढ़ की पहाड़ी को चारों ओर से घेर लिया। उसने भीड़ पर गोलियों की बौछार कर दी। फलस्वरूप 1500 आदिवासी घटना स्थल पर ही शहीद हो गये। गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। परन्तु भीलों में प्रतिक्रिया होने के डर से उनकी यह सजा 20 वर्षों के कारावास में तब्दील कर दी। अंत में वे 10 वर्ष में ही रिहा हो गये। गोविन्द गुरु अहिंसा के पक्षधर थे व उनकी श्वेत ध्वजा शांति की प्रतीक थी। आज भी भील समाज में गोविन्द गुरु का पूजनीय स्थान है। 

  राजस्थान के आदिवासियों में गोविन्द गुरु के पश्चात् सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है, मोतीलाल तेजावत का। आदिवासियों पर ढाये जाने वाले जुल्मों से उद्वेलित होकर उन्होंने ठिकाने की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने 1921 में भीलों को जागीरदारों द्वारा ली जाने वाली बैठ-बेगार और लाग बागों के प्रश्न को लेकर संगठित करना प्रारम्भ किया। शनैः शनैः यह आन्दोलन सिरोही, ईडर, पालनपुर, विजयनगर आदि राज्यों में भी विस्तार पाने लगा। तेजावत ने अपनी मांगों को लेकर भीलों का एक विराट् सम्मेलन विजयनगर राज्य के
नीमड़ा गाँव में आयोजित किया। मेवाड़ एवं अन्य पड़ोसी राज्यों की सरकारे भीलों के संगठित होने से चिंतित होने लगी। अतः इन राज्यों की सेनाएँ भीलों के आन्दोलन को दबाने के लिए नीमड़ा पहुँच गयी। सेना द्वारा सम्मेलन स्थल को घेर लेने और गोलियाँ चलाने के कारण 1200  भील मारे गये और कई घायल हो गये। मोतीलाल तेजावत पैर में गोली लगने से घायल हो गये। लोग उन्हें सुरक्षित स्थान ले गये, जहाँ उनका इलाज किया गया। मोतीलाल तेजावत भूमिगत हो गये, इस कारण मेवाड़, सिरोही आदि राज्यों की पुलिस उनको पकड़ने में नाकामयाब रहीं। अंत में, 8 वर्ष पश्चात् 1929 में गाँधीजी की सलाह पर तेजावत ने अपने आपको ईडर पुलिस के सुपुर्द कर दिया। 1936 में उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके पश्चात् भी नजरबन्द एवं जेल का लुका-छिपी खेल चलता रहा किन्तु उन्होंने सामाजिक सरोकारों से कभी मुँह नहीं मोड़ा।

 भील-गरासियों के हितों के लिए देश की आज़ादी में अन्य जिन जन नेताओं का योगदान रहा, उनमें प्रमुख थे - माणिक्यलाल वर्मा, भोगीलाल पण्ड्या, मामा बालेश्वर दयाल, बलवन्तसिंह मेहता, हरिदेवजोशी, गौरीशंकर उपाध्याय आदि। इन्होंने भील क्षेत्रों में शिक्षण संस्थाएँ, प्रौढ़ शालाएँ, हॉस्टल आदि स्थापित किये। साथ ही, उन आदिवासियों को कुप्रवृत्तियों को छौड़ने के लिए प्ररित किया।

 राजपूताना में कई राज्यों में मीणा जनजाति शताब्दियों से निवास करती आ रही है। कुछ स्थानों पर मीणा शासकों का प्राचीन काल में आधिपत्य रहा था। मीणाओं का मुख्य क्षेत्र ढूँढाड़ था। समय पाकर मीणाओं के दो मुख्य भेद हो गये। जो मीणा खेती करते थे, वे खेतिहर मीणा तथा जो चौकीदारी करते थे, वे चौकीदार मीणा कहलाने लगे। कई बार चौकीदार मीणाओं को चोरी और डकैती के लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा और किसी चोरी का माल बरामद न होने की स्थिति में उस माल की कीमत इनसे वसूली जाने लगी। इन परिस्थितियों में जयपुर राज्य ने भारत, सरकार द्वारा पारित क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट (1924) का लाभ उठाते हुए मीणाओं की जीविका को जरायम पेशा मानते हुए हर मीणा परिवार के बालिग स्त्री-पुरुष ही नहीं, 12 वर्ष से बड़े बच्चों का भी निकटस्थ पुलिस थाने में नाम दर्ज करवाना और दैनिक हाजरी देना आवश्यक कर लिया। इस प्रकार शताब्दियों से स्वच्छन्द विचरण करने वाली बहादुर मीणा जाति साधारण मानवाधिकारों से वंचित कर दी गई। सरकार की इस कार्यवाही का विरोध होने लगा। मीणा
समाज में असंतोष का स्वर उस समय और तेज हो गया जब जयपुर पुलिस ने जरायम पेशा कानून (1930) के अन्तर्गत कठोरता से हाजिरी का पालन करना प्रारम्भ कर दिया। 1933 में मीणा क्षेत्रिय महासभा की स्थापना हुई। इस सभा ने जयपुर सरकार से जरायम पेशा कानून रद्द करने की मांग की परन्तु राज्य ने इसके विपरीत कठोरता से मीणाओं को दबाना प्रारम्भ किया। अप्रेल, 1944 में जैन मुनि मगनसागरजी की अध्यक्षता में नीमकाथाना में मीणो का एक वृहत् सम्मेलन हुआ, जिसमें जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति का गठन हुआ। इस समिति के अध्यक्ष बंशीधर शर्मा, मंत्री राजेन्द्र कुमार एवं संयुक्त मंत्री लक्ष्मीनारायण झरवाल बनाये गये। 1945 में जरायम पेशा कानून को रद्द करने के लिए प्रांतीय स्तर पर आन्दोलन किया गया। अखिल भारतीय देशी राज्य परिषद् ने भी मीणाओं की मांग का समर्थन किया। इसके परिणामस्वरूप थानों में अनिवार्य उपस्थिति की बाध्यताओं को समाप्त किया गया। परन्तु अभी जरायम पेशा अधिनियम यथावत था, जो आजादी के बाद 1952 में ही समाप्त हो सका।

 राजस्थान के देशी रियासतों के इतिहास में बिजौलिया किसान आन्दोलन (1897-1941) का विशिष्ट स्थान है। दीर्घ काल तक चलने वाले इस आन्दोलन में किसान वर्ग ठिकाने और मेवाड़ राज्य की 16सम्मिलित शक्ति से जूझता रहा। इस आन्दोलन में केवल पुरुषों ने ही भाग नहीं लिया, बल्कि स्त्रियों व बालकों ने भी सक्रियता दिखायी। यह आन्दोलन पूर्णतया स्वावलम्बी एवं अहिंसात्मक था। यह आन्दोलन प्रारम्भ में विजयसिंह पथिक के नेतृत्व में चला। इस आन्दोलन में कृषक वर्ग ने अभूतपूर्व साहस, धैर्य और
बलिदान का परिचय दिया, चाहे यह अपने मंतव्य में सफल नहीं हो सका। यह आन्दोलन सामंती व्यवस्था के विरुद्ध भयंकर प्रहार था। यह आन्दोलन मेवाड़ राज्य की सीमा तक ही सीमित नहीं रहा। इस आन्दोलन ने कालान्तर में माणिक्यलाल वर्मा जैसे तेजस्वी नेता को जन्म दिया, जो बाद में मेवाड़ राज्य में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हेतु अनेक आन्दोलनों का प्रणेता बना। हमें यह जान लेना चाहिए कि राजस्थान में कृषक आन्दोलन स्वस्फूर्त था और इसका नेतृत्व पूर्णतः गैर पेशेवर नेताओं एवं अत्यन्त साधारण किसान वर्ग ने किया था, चाहे उनका आधार जातिगत रहा। बिजौलिया आन्दोलन में धाकड़ जाति की महती भूमिका रही। सीकर और शेखावटी आन्दोलनों में जाट जाति का वर्चस्व रहा। मेवाड़ और सिरोही राज्यों के किसान आन्दोलनों के पीछे भील और गरासिया जातियों की शक्ति रही। इसी प्रकार अलवर और भरतपुर राज्यों में मेवों की मुख्य भूमिका रही। इस प्रकार इन आन्दोलनों को सुनियोजित रूप से संचालित करने का श्रेय जाति पंचायतों एवं जाति संगठनों को दिया जा सकता है।


  राजस्थान के किसान आन्दोलनों में बरड़ (बूँदी) किसान आन्दोलन (1921-43), नीमराणा (अलवर) किसान आन्दोलन (1923-25), बेगू (चित्तौड़गढ़), किसान आन्दोलन (1922-25), शेखावाटी किसान आन्दोलन (1924-47), मारवाड़ किसान आन्दोलन (1924-47) प्रमुख है। यह स्मरणीय है कि इन किसान आन्दोलनों में स्त्रियों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। राजस्थान के ये किसान आन्दोलन सामन्त विरोधी स्वरूप लिये हुये थे और इन्होंने कालान्तर में जागीरदारी उन्मूलन की भूमिका तैयार की। राजस्थान के किसान आदोलनों में जबरदस्त उत्साह देखा जा सकता है। यह आन्दोलन सामान्यतः अहिंसात्मक रहे। इन आन्दोलनों ने प्रजामण्डल के जमीन तैयार कर दी थी।  



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