Wednesday, March 28, 2012

मध्यकालीन राजस्थान के कतिपय उज्ज्वल एवं गौरवशाली पक्ष


मध्यकालीन राजस्थान के कतिपय उज्ज्वलएवं गौरवशाली पक्ष

मध्यकाल में राजपत शासकां और सामन्तां ने मुस्लिम शक्ति का रोकने की समय-समय पर भरपर काशिश की। राजपतों द्वारा अनवरत तीव्र प्रतिरोध का सिलसिला मध्यकाल में चलता रहा। सत्ता संघर्ष में राजपत निर्णायक लड़ाई नही जीत सके। इसका मुख्य कारण राजपूतों में साधारणतः आपसी सहयोग का अभाव, युद्ध लड़न की कमजार रणनीति तथा सामन्तवाद था। यह साचना उचित नहीं है कि राजपूतां के प्रतिरोध का कोई अर्थ नहीं निकला। राणा कुम्भा एवं राणा सागा के नेतृत्व में सर्वा च्चता की स्थापना राजपतान में ही सम्भव हा सकती थी। यह स्मरण रह कि आगे चलकर राणा प्रताप, चन्द्रसेन और राजसिंह ने मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। यद्यपि अकबर की राजपूत नीति के कारण राजपूताना के अधिकांश शासक उसके हितां की रक्षा करने वाले बन गये।
       मध्यकालीन राजस्थान का बौद्धिक अधिसृष्टि से पिछड़ा मानना इतिहास के तथ्यां एव अनुभवों के विपरीत होगा। जिस वीर प्रसूता वसुन्धरा पर माघ, हरिभद्रसूरी, चन्दबरदाई, सूर्यमल्ल मिश्रण, कवि करणीदास, दुरसा आढ़ा, नैणसी जैसे विद्वान लेखक तथा महाराणा कुम्भा, राजा रायसिंह, राजा सवाई जयसिंह जैसे प्रबुद्ध शासक अवतरित हुए हों, वह ज्ञान के आलोक से कभी वचित रही हो, स्वीकार्य नहीं। जिस प्रदेश के रणबाँकुरों में राणा प्रताप, राव चन्द्रसेन, दुर्गादास जैसे व्यक्तित्व रहे हों, वह धरती यश से वचित रहे; सोचा भी नहीं जो सकता। धरती धोरां री का इतिहास अपने-आप में राजस्थान का ही नहीं अपितु भारतीय इतिहास का उज्ज्वल एव गौरवशाली पहल है। मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास में गुहिल-सिसोदिया (मेवाड़), कछवाहा (आमेर-जयपुर), चौहान (अजमेर, दिल्ली, जालौर, सिराही, हाड़ौती इत्यादि के चौहान), राठौड़ (जाधपुर और बीकानेर के राठौड़) इत्यादि राजवश नक्षत्र भांति चमकत हुये दिखाई देत हैं।


गुहिल-सिसोदिया वंश

मेवाड़ के इतिहास में तरहवी शताब्दी के आरंभ से एक नया माड़ आता है, जिसमें चौहानां की केन्द्रीय शक्ति का ह्वास होना और गुहिल जैत्रसिंह जैसे व्यक्ति का शासक होना बडे़ महत्त्व की घटनाएँ है। मेवाड़ के गुहिल  शासक रत्नसिंह (1302-03) के समय चित्तौड़ पर दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण किया था। अलाउद्दीन के इस आक्रमण  के राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक कारणां के साथ रत्नसिंह की सुन्दर पत्नी पद्मिनी का प्राप्त करने लालसा भी बताया जाता है। पद्मिनी की कथा का उल्लेख मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत नामक ग्रंथ में मिलता है। अलाउद्दीन के आक्रमण के दौरान रत्नसिंह और गारा-बादल वीर गति प्राप्त हुये तथा पद्मिनी ने 1600 स्त्रियों के साथ जौहर कर आत्मोत्सर्ग किया। इसी समय अलाउद्दीन ने 30,000 हिन्दुओं का चित्तौड़गढ़ में कत्ल करवा दिया था। अलाउद्दीन ने चित्तौड़ जीतकर उसका नाम खिज्राबाद कर दिया था। राजपतों का यह बलिदान चित्तौड़ के प्रथम साके के नाम से प्रसिद्ध हैं जिसमें गारा-बादल की वीरता एक अमर कहानी बन गयी। आज भी चित्तौड़ के खण्डहरां में गारा-बादल के महल उनके साहस और सूझ-बझ की कहानी सुना रहे हैं। पद्मिनी का त्याग और जौहर व्रत महिलाआं का एक नयी प्र ेरणा देता है। गारा-बादल का बलिदान हमें यह सिखाता है कि जब देश पर आपत्ति आये ता प्रत्येक व्यक्ति को अपना सर्वस्व न्याछावर कर दश-रक्षा में लग जाना चाहिए। रत्नसिंह के पश्चात् सिसादिया के सरदार हम्मीर ने मेवाड़ का दयनीय स्थिति से उभारा। वह राणा शाखा का राजपूत था। राणा लाखा (1382-1421) के समय उदयपुर की पिछोला झील का बांध बनवाया गया था। लाखा के निर्माण कार्य मेवाड़ की आर्थिक स्थिति तथा सम्पन्नता का बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध हुए। लाखा के पुत्र माकल ने मेवाड़ का बौद्धिक तथा कलात्मक प्रवृत्तियों का केन्द्र बनाया। उसने चित्तौड़ के समिधेश्वर (त्रिभुवननारायण मंदिर) मंदिर के जीर्णो द्धार द्वारा पर्व मध्यकालीन तक्षण कला के नमूने को जीवित रखा। उसने एकलिगजी के मंदिर के चारों आर परकोटा बनवाकर, उस मदिर की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था की।


मोकल के पुत्र राणा कुंभा (1433 -1468) का
काल मेवाड़ में राजनीतिक, साहित्यिक और सास्कृतिक उन्नति के लिए जाना जाता है। कुंभा का अभिनवभरताचार्य, हिन्द सुरताण, चापगुरु, दानगुरु आदि विरुदों से संबाधित किया जाता था। राणा कुम्भा ने 1437 में सारंगपुर के युद्ध में मालवा (मांडू) के सुल्तान महमूद खिलजी का पराजित किया था। इस विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने अपन आराध्यदेव विष्णु के निमित्त चित्तौड़गढ़ में कीर्तिस्तंभ (विजयस्तंभ) का निर्माण करवाया। कुंभा ने मेवाड़ की सुरक्षा के उद्देश्य से 32 किलों का निर्माण करवाया था, जिनमें बसन्ती दुर्ग, मचान दुर्ग, अचलगढ, कुंभलगढ दुर्ग प्रमुख हैं। कुंभलगढ दुर्ग का सबसे ऊँचा भाग कटारगढ कहलाता है। कुंभाकालीन स्थापत्य में मंदिरां का बड़ा महत्त्व है। ऐसे मन्दिरों में कुंभस्वामी तथा श्रृंगारचौरी का मंदिर (चित्तौड़), मीरां मदिर (एकलिंगजी), रणकपुर का मंदिर अनूठे हैं। कुंभा वीर, युद्धकुषल, कलाप्रेमी के साथ-साथ विद्वान एव विद्यानुरागी भी था। एकलिंगमहात्म्य से ज्ञात होता है कि कुम्भा वेद, स्मृति, मीमासा, उपनिषद, व्याकरण, साहित्य, राजनीति में बड़ा निपुण था। संगीतराज, संगीत मीमांसा एव सूड़ प्रबन्ध कुंभा द्वारा रचित संगीत  ग्रन्थ थ। कुंभा ने चण्डीशतक की व्याख्या, गीतगोविन्द की रसिकप्रिया टीका और संगीत रत्नाकर की टीका लिखी थी। कुंभा का दरबार विद्वानां की शरणस्थली था। उसके दरबार में मण्डन (प्रख्यात शिल्पी), कवि अत्रि और महेश, कान्ह व्यास इत्यादि थे। अत्रि और महश ने कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति की रचना की तथा कान्ह व्यास ने एकलिगमहात्य नामक  ग्रन्थ की रचना की। इस प्रकार कंुभा के काल में मेवाड़ सर्वतान्मुखी उन्नति पर पहुँच गया था।


मेवाड़ के वीरां में राणा सांगा (1509-1528)
का अद्वितीय स्थान है। सांगा ने गागरोन के युद्ध में मालवा के महमूद खिलजी द्वितीय और खातौली के युद्ध में दिल्ली के सुल्तान इब्राहीम लोदी का पराजित कर अपनी सैनिक योग्यता का परिचय दिया। सांगा भारतीय इतिहास में हिन्दपत के नाम से विख्यात है। राणा सांगा खानवा के मैदान में राजपूतों का एक संघ बनाकर बाबर के विरुद्ध लड़न आया था परन्तु पराजित हुआ। बाबर के श्रेष्ठ नेतृत्व एव तोपखानं के कारण सांगा की पराजय हुई। खानवा का युद्ध (17 मार्च, 1527) परिणामों की दृष्टि से बड़ा महत्त्वपर्ण रहा। इससे राजसत्ता राजपूतों के हाथों से निकलकर, मुगलां के हाथां में आ गई। यहीं से उत्तरी भारत का राजनीतिक संबध मध्य एशियाई देशों से पुनः स्थापित हा गया। राणा सांगा अन्तिम हिन्दू राजा था जिसके सेनापतित्व में सब राजपत जातियाँ विदेशियां का भारत से निकालन के लिए सम्मिलित हुई। सागा ने अपने दश के गौरव रक्षा में एक आँख, एक हाथ और टांग गँवा दी थी। इसके अतिरिक्त उसके शरीर के भिन्न-भिन्न भागों पर 80 तलवार के घाव लगे हुये थे। सांगा ने अपने चरित्र और आत्म बल से उस जमाने में इस बात की पुष्टि कर दी थी कि उच्च पद और चतुराई की अपेक्षा स्वदेश रक्षा और मानव धर्म का पालन करन की क्षमता का अधिक महत्त्व है।


सांगा के पुत्र विक्रमादित्य (1531 -1536) के
राजत्व काल में गुजरात के बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर दा आक्रमण किये, जिसमें मेवाड़ को जन और धन की हानि उठानी पड़ी। इस आक्रमण के दौरान विक्रमादित्य की माँ और सागा की पत्नी हाड़ी कर्मावती ने हुमायूँ के पास राखी भजकर सहायता मांगी परन्तु समय पर सहायता ने मिलन पर कर्मावती (कर्णावती) ने जौहर व्रत का पालन किया। कुँवर पृथ्वीराज के अनौरस पुत्र वणवीर ने अवसर पाकर विक्रमादित्य की हत्या कर दी। वह विक्रमादित्य के दसर भाई उदयसिंह का भी मारकर निश्चिन्त हाकर राज्य भागना चाहता था परन्तु पन्नाधाय ने अपन पुत्र चन्दन को मृत्यु शैया पर लिटाकर उदयसिंह का बचा लिया और चित्तौड़गढ़ से निकालकर कुंभलगढ पहुँचा दिया। इस प्रकार पन्नाधाय ने दश प्रेम हेतु त्याग का अनुठा उदाहरण प्रस्तुत किया जिसका गान भारतीय इतिहास में सदियां तक होता रहगा।


महाराणा उदयसिंह (1537 -1572) ने
1559 में उदयपुर की स्थापना की थी। उसके समय 1567-68 में अकबर ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया था परन्तु कहा जाता है कि अपने मन्त्रियां की सलाह पर उदयसिंह चित्तौड़ की रक्षा का भार जयमल मेड़तिया और फत्ता सिसोदिया को सौंपकर गिरवा की पहाड़ियाँ में चला गया था। इतिहास लेखकां ने इसे उदयसिंह की कायरता बताया है। कर्नल टॉड ने तो यहाँ तक लिखा है कि यदि सांगा और प्रताप के बीच में उदयसिंह ने हाता तो मेवाड़ के इतिहास के पन्ने अधिक उज्ज्वल हात। परन्तु डॉ. गापीनाथ शर्मा की राय में उदयसिंह का कायर या दशद्राही कभी नहीं कहा जो सकता क्योंकि उसन बणवीर, मालदव, हाजी खाँ पठान आदि के विरुद्ध युद्ध लड़कर अपने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया था। अकबर से लड़त हुये जयमल और फत्ता वीर गति को प्राप्त हुये। अकबर ने चित्तौड़ में तीन दिनों के कठिन संघर्ष के बाद 25 फरवरी, 1568 का किला फतह कर लिया। अकबर द्वारा यहाँ कराये गये नरसंहार से आज भी उसका नाम कलकित है। अकबर जयमल और फत्ता की वीरता से इतना मुग्ध हुआ कि उसने आगरा किले के द्वार पर उन दानों वीरां की पाषाण मूर्तियाँ बनवाकर लगवा दी।


उदयसिंह के पुत्र महाराणा प्रताप का जन्म
9 मई, 1540 का कटारगढ़ (कुंभलगढ) में हुआ था। प्रताप ने मेवाड़ के सिंहासन पर केवल पच्चीस वर्षो  तक शासन किया लेकिन इतने समय में ही उन्हांन ऐसी कीर्ति अर्जित की जो देश-काल की सीमा का पार कर अमर हा गई। वह और उनका मेवाड़ राज्य वीरता, बलिदान और देशाभिमान के पर्याय बन गए। प्रताप को पहाड़ी भाग में कीका कहा जाता था,  जो  स्थानीय भाषा में छाट बच्चे का सूचक है। अकबर ने प्रताप का अधीनता में लाने के अनक प्रयास किये परन्तु निष्फल रहे। जहाँ भारत के तथा राजस्थान के अधिकांश नरेशां ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी, प्रताप ने वैभव के प्रलोभन का ठुकरा कर राजनीतिक मंच पर अपनी कर्त्तव्य परायणता के उत्तरदायित्व का बडे़ साहस से निभाया। उसन अपनी निष्ठा और दृढता से अपने सैनिकों का कर्त्तव्यबोध, प्रजा का आशावादी और शत्रु का भयभीत रखा।
       अकबर मेवाड़ की स्वतन्त्रता समाप्त करन पर तुला हुआ था और प्रताप उसकी रक्षा के लिए। दानों की मनोवृत्ति और भावनाआं का मेल ने होना ही हल्दीघाटी के युद्ध (18 जून, 1576) का कारण बन गया। अकबर के प्रतिनिधि मानसिंह और महाराणा प्रताप के मध्य ऐतिहासिक हल्दीघाटी (जिला राजसमंद) का युद्ध लड़ा गया। परन्तु इसमें मानसिंह प्रताप को मारने अथवा बन्दी बनान में असफल रहा, वहीं प्रताप ने अपनी प्रिय घोडे़ चेतक की पीठ पर बैठकर मुगलां का ऐसा छकाया कि वे अपना पिण्ड छुड़ाकर मेवाड़ से भाग निकले। यदि हम इस युद्ध के परिणामों का गहराई से दखत हैं ता पात हैं कि पार्थिव विजय ता मुगलां का मिली, परन्तु वह विजय पराजय से काई कम नहीं थी। महाराणा प्रताप को विपत्ति काल में उसके मन्त्री भामाशाह ने सुरक्षित सम्पत्ति लाकर समर्पित कर दी थी। इस कारण भामाशाह को दानवीर तथा मेवाड़ का उद्धारक कहकर पुकारा जाता है।
       राणा प्रताप ने 1582 में दिवेर के यद्ध में अकबर के प्रतिनिधि सुल्तान खाँ को मारकर वीरता का प्रदर्शन किया। प्रताप ने अपन जीवनकाल में चित्तौड़ और मांडलगढ़ के अतिरिक्त मेवाड़ के अधिकांश हिस्सों पर पुनः अधिकार कर लिया था। प्रताप ने विभिन्न समय में कुंभलगढ़ और चावण्ड का अपनी राजधानियाँ बनायी थीं। प्रताप के सम्बन्ध में कर्नल जेम्स टॉड का कथन है कि ‘‘अकबर की उच्च महत्त्वाकांक्षा, शासन निपुणता और असीम साधन ये सब बातं दृढ़-चित्त महाराणा प्रताप की अदम्य वीरता, कीर्ति का उज्ज्वल रखन वाले दृढ़ साहस और कर्मठता का दबाने में पर्याप्त ने थी। अरावली में काई भी ऐसी घाटी नहीं, जो प्रताप के किसी ने किसी वीर कार्य, उज्ज्वल विजय या उससे अधिक कीर्तियुक्त पराजय से पवित्र ने हुई हा। हल्दीघाटी मेवाड़ की थर्मो पल्ली और दिवेर मेवाड़ का मेराथन है।’’ अतएव स्वतन्त्रता का महान् स्तंभ, सद्काया े का समर्थक और नैतिक आचरण का पुजारी होने के कारण आज भी प्रताप का नाम असंख्य भारतीयों के लिए आशा का बादल है और ज्योति का स्तंभ है।

प्रताप की मृत्यु (19 जनवरी, 1597) के पश्चात्
उसके पुत्र अमर सिंह ने मेवाड़ की बिगड़ी हुई व्यवस्था का सुधारने के लिए मुगलां से संधि करना श्रेयस्कर माना। अमरसिंह ने 1615 का जहाँगीर के प्रतिनिधि पुत्र खुर्रम के पास संधि का प्रस्ताव भजा, जिसे जहाँगीर ने स्वीकार कर लिए। अमरसिंह मुगलां से संधि करने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक था। संधि में कहा गया था कि राणा अमरसिंह का अन्य राजाओं की भांति मुगल दरबार की सेवा श्रेणी में प्रवेश करना होगा, परन्तु राणा को दरबार में जाकर उपस्थित होना आवश्यक ने हागा।

महाराणा राजसिंह  (1652-1680) ने मेवाड़
की जनता को दुश्काल से सहायता पहुँचान के लिए तथा कलात्मक प्रवृत्ति का प्रोत्साहन देन के लिए राजसमंद झील का निर्माण करवाया। राजसिंह ने युद्ध नीति और राज्य हित के लिए संस्कृति के तत्त्वां के पाषण की नीति का प्राथमिकता दी। वह रणकुशल, साहसी, वीर तथा निर्भीक शासक था। उसमें कला के प्रति रुचि और साहित्य के प्रति निष्ठा थी। मेवाड़ के इतिहास में निर्माण कार्य एवं साहित्य का इसके समय में जितना प्रश्रय मिला, कुंभा को छोड़कर किसी अन्य शासक के समय में ने मिला। औरगंजेब जैसे शक्तिशाली मुगल शासक से मैत्री सम्बन्ध बनाये रखना तथा आवश्यकता पड़न पर शत्रुता बढ़ा लेना राजसिंह की समयाचित नीति का परिणाम था।


कछवाहा वंश

कछवाहा वश राजस्थान के इतिहास मंच पर बारहवी सदी से दिखाई देता है। उनका प्रारम्भ में मीणों और बड़गुजरों का सामना करना पड़ा था। इस वश के प्रारम्भिक शासकां ने दुल्हैराय व पृथ्वीराज बडे़ प्रभावशाली थे जिन्हांने दौसा, रामगढ़, खाह, झोटवाड़ा, गेटोर तथा आमेर का अपन राज्य में सम्मिलित किया था। पृथ्वीराज, राणा सांगा का सामन्त होने के नाते खानवा के युद्ध (1527) में बाबर के विरुद्ध लड़ा था। पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद कछवाहां की स्थिति संताषजनक नहीं थी। गृह कलह तथा अयोग्य शासकां से राज्य निर्बल हा रहा था। 1547 में भारमल ने आमेर की बागडोर हाथ में ली। भारमल ने उदयीमान अकबर की शक्ति का महत्त्व समझा और 1562 में उसन अकबर की अधीनता स्वीकार कर अपनी ज्येश्ठ पुत्री हरकूबाई का विवाह अकबर के साथ कर दिया। अकबर की यह बेगम मरियम-उज्जमानी के नाम से विख्यात हुई। भारमल पहला राजपूत था जिसन मुसलमानां (मुगल) से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये थे।


भारमल के पश्चात् कछवाहा शासक मानसिंह
अकबर के दरबार का योग्य सेनानायक था। रणथम्भौर के 1569 के आक्रमण के समय मानसिंह और उसके पिता भगवन्तदास अकबर के साथ थ। मानसिंह को अकबर ने काबुल, बिहार और बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था। वह अकबर के नवरत्नां में शामिल था तथा उसे अकबर ने 7000 मनसब प्रदान किया था। मानसिंह ने आमेर में शिलादवी मन्दिर, जगतशिरोमणि मन्दिर इत्यादि का निर्माण करवाया। इसके समय में दादूदयाल ने वाणी की रचना की थी।

मानसिंह के पश्चात् के शासकों में मिर्जा राजा
जयसिंह (1621-1667) महत्त्वपर्ण था, जिसन 46 वर्षा ं तक शासन किया। इस दौरान उसे जहाँगीर, शाहजहाँ और औरंगजेब की सेवा में रहन का अवसर प्राप्त हुआ। उसे शाहजहा ने मिर्जा राजा का खिताब प्रदान किया। औरंगजेब ने मिर्जा राजा जयसिंह का मराठां के विरुद्ध दक्षिण भारत में नियुक्त किया था। जयसिंह ने पुरन्दर में शिवाजी का पराजित कर मुगलां से संधि के लिए बाध्य किया। 11 जून, 1665 को शिवाजी और जयसिंह के मध्य पुरन्दर की संधि हुई थी, जिसके अनुसार आवश्यकता पड़न पर शिवाजी ने मुगलों की सेवा में उपस्थित होन का वचन दिया। इस प्रकार पुरन्दर की संधि जयसिंह की राजनीतिक दूरदर्शिता का एक सफल परिणाम थी। जयसिंह के बनवाये आमेर के महल तथा जयगढ़ और औरंगाबाद में जयसिंहपुरा उसकी वास्तुकला के प्रति रुचि का प्रदर्शित करते हैं। इसके दरबार में हिन्दी का प्रसिद्ध कवि बिहारीमल था।



कछवाहा शासकों में सवाई जयसिंह द्वितीय
(1700-1743) का अद्वितीय स्थान है। वह राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ, खगालविद्, विद्वान एवं साहित्यकार तथा कला का पारखी था। वह मालवा का मुगल सूबेदार रहा था। जयसिंह ने मुगल प्रतिनिधि के रूप में बदनसिंह के सहयोग से जाटां का दमन किया। सवाई जयसिंह ने राजपताना में अपनी स्थिति मजबत करन तथा मराठों का मुकाबला करन के उद्देश्य से 17 जुलाई, 1734 को हुरड़ा (भीलवाड़ा) में राजपूत राजाओं का सम्मेलन आयोजित किया। इसमें जयपुर, जाधपुर, उदयपुर, कोटा, किशनगढ़, नागौर, बीकानर आदि के शासकां ने भाग लिया था परन्तु इस सम्मेलन का जो परिणाम हाना चाहिए था, वह नहीं हुआ, क्योंकि राजस्थान के शासकां के स्वार्थ भिन्न-भिन्न थ। सवाई जयसिंह अपना प्रभाव बढ़ान के उद्देश्य से बूंदी के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षप कर स्वयं वहाँ का सर्वे सर्वा बन बैठा, परन्तु बूंदी के बुद्धसिंह की पत्नी अमर कुँवरि न, जो जयसिंह की बहिन थी, मराठा मल्हारराव हाल्कर को अपना राखीबन्द भाई बनाकर और धन का लालच दकर बूँदी आमत्रित किया जिससे होल्कर और सिन्धिया ने बूंदी पर आक्रमण कर दिया।
सवाई जयसिंह संस्कृत और फारसी का विद्वान होने के साथ गणित और खगोलशास्त्र का असाधारण पण्डित था। उसने 1725 में नक्षत्रां की शुद्ध सारणी बनाई और उसका तत्कालीन सम्राट के नाम पर जीजमुहम्मदशाही नाम रखा। उसने जयसिंह कारिका नामक ज्यातिष ग्रंथ की रचना की। सवाई जयसिंह की महान् दन जयपुर है, जिसकी उसन 1727 में स्थापना की थी। जयपुर का वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य था। नगर निर्माण के विचार से यह नगर भारत तथा यूरोप में अपने ढंग का अनूठा है जिसकी समकालीन और वर्तमानकालीन विदेशी यात्रियों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। जयपुर में जयसिंह ने सुदर्शनगढ़ (नाहरगढ़) किले का निर्माण करवाया तथा जयगढ किले में जयबाण नामक तोप बनवाई। उसने दिल्ली, जयपुर, उज्जैन, मथुरा और बनारस में पाँच वेधशालाओं (जन्तर-मन्तर) का निर्माण करवाया,  जो  ग्रह-नक्षत्रादि की गति को सही तौर से जानन के लिए बनवाई गई थी। जयपुर के जन्तर-मन्तर में सवाई जयसिंह द्वारा निर्मित सूर्य घड़ी है जिसे सम्राट यंत्र के नाम से जाना जाता है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी सूर्य घड़ी के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त है। धर्मरक्षक हाने के नाते उसने वाजपेय, राजसूय आदि यज्ञों का आयोजन किया। वह अन्तिम हिन्दू नरेश था, जिसने भारतीय परम्परा के अनुकूल अश्वमेध यज्ञ किया। इस प्रकार सवाई जयसिंह अपने शौर्य, बल, कूटनीति और विद्वता के कारण अपन समय का ख्याति प्राप्त व्यक्ति बन गया था, परन्तु वह यग के प्रचलित दाषां से ऊपर ने उठ सका।



राठौड़ वंश


राजस्थान के उत्तरी और पश्चिमी भागों में  राठौड़ राज्य स्थापित थ। इनमें जाधपुर और बीकानर के राठौड़ राजपत प्रसिद्ध रह हैं।  जो धपुर राज्य का मूल पुरुष राव सीहा  था, जिसने मारवाड़ के एक छाटे भाग पर शासन किया। परन्तु लम्बे समय तक गुहिलों, परमारां, चौहानां आदि राजपत राजवशों की तुलना में राठौड़ां की शक्ति प्रभावशाली ने हा पाई थी।


राठौड़ शासक राव  जोधा ने 1459 में
जाधपुर बसाकर वहाँ मेहरानगढ़ का निर्माण करवाया था। राव गांगा (1515-1532) ने खानवा के युद्ध में 4000 सैनिक भेजकर सांगा की मदद की थी। इस प्रकार सागा जैसे शक्ति सम्पन्न शासक के साथ रहकर राव गांगा ने अपने राज्य का राजनीतिक स्तर ऊपर उठा दिया। राव मालदेव गांगा का ज्येष्ठ पुत्र था। वह अपन समय का एक वीर, प्रतापी, शक्ति सम्पन्न शासक था। उसके समय में मारवाड़ की सीमा हिण्डौन, बयाना, फतेहपुर-सीकरी और मेवाड़ की सीमा तक प्रसारित हो चुकी थी। मालदव की पत्नी उमाद (जैसलमेर की राजकुमारी) इतिहास में रूठी रानी के नाम से विख्यात है। मालदव ने साहेबा के मैदान में बीकानर के राव जैतसी को मारकर अपन साम्राज्य विस्तार की इच्छा का पूरी किया परन्तु मालदव ने अपनी विजयां से जैसलमेर, मेवाड़ और बीकानेर से शत्रुता बढ़ाकर अपने सहयागियों की संख्या कम कर दी। शेरशाह से  हारने के बाद हुमायू ँ मालदेव से सहायता प्राप्त करना चाहता था परन्तु वह मालदव पर सन्दह करके अमरकोट की आर प्रस्थान कर गया। मालदव की सेना का 1544 में गिरि-सुमेल के युद्ध में शेरशाह सूरी का सामना करना पड़ा। कहा जाता है कि इस युद्ध में पर्व शेरशाह ने चालाकी का सहारा लेते हुये मालदव के दो सेनापति जेता और कूंपा को जाली पत्र लिखकर अपनी ओर मिलाने का ढोंग रचा था। इस युद्ध में स्वामिभक्त जेता और कूंपा मार गये तथा शेरशाह की विजय हुई। युद्ध समाप्ति के पश्चात् शेरशाह ने कहा था ‘‘एक मुट्ठी भर बाजरा के लिए वह हिन्दुस्तान की बादशाहत खो दता।’’


मालदेव के पुत्र चन्द्रसेन ने जो एक स्वतन्त्र प्रकृति का वीर था, अपना अधिकाश जीवन पहाड़ां में बिताया परन्तु अकबर की आजीवन अधीनता स्वीकार नहीं की। वंश गौरव और स्वाभिमान,  जो  राजस्थान की संस्कृति के मूल तत्व हैं, हम चन्द्रसेन के व्यक्तित्व में पाते हैं। महाराणा प्रताप ने जैसे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए मुगल अधीनता स्वीकार नही की, उसी प्रकार चन्द्रसेन भी आजन्म अकबर से टक्कर लेता रहा। चन्द्रसेन की मृत्यु के बाद अकबर ने चन्द्रसेन के बडे़ भाई मोटा राजा उदयसिंह का 1583 में मारवाड़ का राज्य सौंप दिया। इस प्रकार उदयसिंह मारवाड़ का प्रथम शासक था जिसने मुगलां की कृपा प्राप्त की थी। उदयसिंह ने 1587 में अपनी पुत्री मानीबाई (जाधपुर की राजकुमारी होन के कारण यह जाधाबाई भी कहलाती है) का विवाह जहाँगीर के साथ कर दिया। यह इतिहास में जगतगुसाई के नाम से प्रसिद्ध थी। इसी वंश के गजसिंह का पुत्र अमरसिंह राठौड़ राजकुमारों में अपने साहस और वीरता के लिए प्रसिद्ध है। आज भी इसके नाम के ख्याल राजस्थान के गाँवां में गाये जात हैं।


जसवन्त सिंह ने धर्मत के युद्ध (1658) में
औरंगजेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से भाग लिया था परन्तु शाही सेना की पराजय ने जसवन्तसिंह का युद्ध मैदान से भागन पर मजबर कर दिया। जसवन्त सिंह खजुआ के युद्ध (1659) में शुजा के विरुद्ध औरगजेब की ओर से लड़ने गया था परन्तु वह मैदान में शुजा से गुप्त संवाद कर, शुजा की आर शामिल हा गया, जो उसके लिए अशाभनीय था। हालांकि वह जैसा वीर, साहसी और कूटनीतिज्ञ था वैसा ही वह विद्या तथा कला प्रेमी भी था। उसन भाषा-भूषण नामक ग्रंथ लिखा। मु ँहणात नैणसी उसका मंत्री था। नैणसी द्वारा लिखी गई नैणसी की ख्यात तथा मारवाड़ रा परगना री विगत राजस्थान की ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अध्ययन के अनुपम ग्रंथ हैं। जसवन्त सिंह मारवाड़ का शासक था जिसन अपन बल और प्रभाव से अपन राज्य का सम्मान बनाये रखा। मुगल दरबार का सदस्य हाते हुए भी उसन अपनी स्वतन्त्र प्रकृति का परिचय दकर राठौड़ वश के गौरव और पद की प्रतिष्ठा बनाये रखी। राठौड़ दुर्गादास ने औरंगजेब का विराध कर जसवन्तसिंह के पुत्र अजीतसिंह का मारवाड़ का शासक बनाया। परन्तु अजीतसिंह ने अपन सच्चे सहायक और मारवाड़ के रक्षक, अदम्य साहसी वीर दुर्गादास का, जिसन उसके जन्म से ही उसका साथ दिया था, बुर लोगां का बहकाने में आकर बिना किसी अपराध के मारवाड़ से निर्वासित कर दिया। उसकी यह कृतघ्नता उसके चरित्र पर कलक की कालिमा के रूप में सदैव
अंकित रहेगी। दुर्गादास ने अपनी कूटनीति से औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर का अपनी ओर मिला लिया था। उसन शहजादा अकबर के पुत्र बुलन्द अख्तर तथा पुत्री सफीयतुनिस्सा को शरण देकर तथा उनके लिए कुरान की शिक्षा व्यवस्था करके साम्प्रदायिक एकता का परिचय दिया। वीर दुर्गादास राठौड़ां का एक चमकता हुआ सितारा है, जिससे इतिहासकार जेम्स टॉड भी प्रभावित हुये बिना नहीं रह सका। जेम्स टॉड ने उसे राठौड़ां का यूलीसैस कहा है।

जोधपुर के  जो धा के पुत्र राव बीका ने 1488
में बीकानर बसाकर उसे राठौड़ सत्ता का दूसरा केन्द्र बनाया। बीका के पुत्र राव लणकर्ण का इतिहास में कलयग का कर्ण कहा गया है। बीकानर के जैतसी का बाबर के पुत्र कामरान से संघर्ष हुआ जिसमें कामरान की पराजय हुई। 1570 में अकबर द्वारा आयोजित नागौर दरबार में राव कल्याणमल ने अपन पुत्र रायसिंह के साथ भाग लिया। तभी से मुगल सम्राट और बीकानेर राज्य का मैत्री संबध स्थापित हा गया। बीकानेर के नरेशां में कल्याणमल प्रथम व्यक्ति था जिसन अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

महाराजा रायसिंह ने मुगलों की लिए गुजरात, काबुल और कंधार अभियान किये। वह अपन वीराचित तथा स्वामिभक्ति के गुणां के कारण अकबर तथा जहाँगीर का विश्वास पात्र बना रहा। रायसिंह ने बीकानर के किले का निर्माण करवाया, जिस पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है। रायसिंह स्वभाव से उदार तथा दानवीर शासक था। इसी आधार पर मं ुशी दवीप्रसाद ने उसे राजपूतान का कर्ण कहा है। बीकानेर महाराजा दलपतसिंह का आचरण जहाँगीर के अनुकूल ने हान के कारण जहाँगीर ने उसे कैद कर मृत्यु दण्ड दिया था। महाराजा कर्णसिंह को जंगलधर बादशाह कहा जाता था। इस उपाधि का उपयोग बीकानेर के सभी शासक करत हैं।

महाराजा अनूपसिंह वीर, कूटनीतिज्ञ और विद्यानुरागी शासक था। उसन अनूपविवेक, कामप्रबाध, श्राद्धप्रयाग चिन्तामणि और गीतगोविन्द पर अनूपादय टीका लिखी थी। उसे संगीत से प्रेम था। उसन दक्षिण में रहते हुए अनक ग्रंथों का नष्ट होन से बचाया और उन्हें खरीदकर अपन पुस्तकालय के लिए ले आया। कुम्भा के संगीत गं ्रथां का पूरा संग्रह भी उसन एकत्र करवाया था। आज अनूप पुस्तकालय (बीकानेर) हमारे लिए अलभ्य पुस्तकों का भण्डार है, जिसका श्रय अनूपसिंह के विद्यानुराग का है। दक्षिण में रहते हुये उसन अनेक मूर्तियों का संग्रह किया और उन्हें नष्ट हान से बचाया। यह मर्तियों का संग्रह बीकानेर के ‘‘तैतीस करोड़ दवताआं के मदिर’’ में सुरक्षित है।

किशनगढ़ में भी राठौड़ सत्ता का पृथक् केन्द्र था। यहाँ का प्रसिद्ध शासक सावन्त सिंह था,  जो  कृष्ण भक्त हाने के कारण नागरीदास के नाम से प्रसिद्ध था। इसके समय किशनगढ में चित्रकला का अद्भुत विकास हुआ। किशनगढ़ चित्रशैली का प्रसिद्ध चित्रकार निहालचन्द था, जिसने प्रसिद्ध बनी-ठणी चित्र चित्रित किया।



चौहान वंश
हम चौहानां के अधिवासन और प्रारम्भिक विस्तार में बारे में विगत पृष्ठां में अध्ययन कर चुके हैं। बारहवी शताब्दी के अन्तिम चरण में शाकम्भरी के चौहान शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय ने अपनी विजयों से उत्तरी भारत की राजनीति में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया था। उसने चन्दल शासक परमार्दीदव के दशभक्त सेनानी  आल्हा और ऊदल को मारकर 1182 का महोबा का जीत लिया। कन्नौज के गाहड़वाल शासक जयचन्द का दिल्ली का लेकर चौहानों से वैमनस्य था। हालाकि पृथ्वीराज चौहान तृतीय भी अपनी दिग्विजय में कन्नौज को शामिल करना चाहता था। इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान तृतीय और जयचन्द की महत्त्वाकांक्षा दोनां के वैमनस्य का कारण बन गयी। पृथ्वीराजरासो दोनां के मध्य शत्रुता का कारण जयचन्द की पुत्री संयागिता का बताता है। पृथ्वीराज तृतीय ने 1191 में तराइन के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गौरी को पराजित कर भारत में तुर्क आक्रमण को धक्का पहुँचाया।
तुर्कों के विरुद्ध लडें गये युद्धां में तराइन का प्रथम युद्ध हिन्द विजय का एक गौरवपूर्ण अध्याय है। परन्तु पृथ्वीराज चौहान द्वारा पराजित तुर्की सेना का पीछा ने किया जाना इस युद्ध में की गयी भल के रूप में भारतीय भ्रम का एक कलकित पृष्ठ है। इस भूल के परिणामस्वरूप 1192 में मुहम्मद गौरी ने तराइन के दूसर युद्ध में पृथ्वीराज चौहान तृतीय का पराजित कर दिया। इस हार का कारण राजपतों का परम्परागत सैन्य संगठन माना जाता है। पृथ्वीराज चौहान अपने राज्यकाल के आरंभ से लेकर अन्त तक युद्ध लड़ता रहा,  जो  उसके एक अच्छे सैनिक और सेनाध्यक्ष होने का प्रमाणित करता है। सिवाय तराइन के द्वितीय युद्ध के, वह सभी युद्धों में विजेता रहा। वह स्वयं अच्छा गुणी होने के साथ-साथ गुणीजनों का सम्मान करन वाला था। जयानक, विद्यापति गौड़, वागीश्वर, जनार्दन तथा विश्वरूप उसके दरबारी लेखक और कवि थ, जिनकी कृतियाँ उसके समय को अमर बनाये हुए हैं। जयानक ने पृथ्वीराज विजय की रचना की थी। पृथ्वीराजरासो का लेखक चन्दबरदाई भी पृथ्वीराज चौहान का आश्रित कवि था।

 रणथम्भौर के चौहान वंश की स्थापना पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविन्द राज ने की थी। यहाँ के प्रतिभा सम्पन्न शासकां में हम्मीर का नाम सर्वो परि है। दिल्ली के सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने हम्मीर के समय रणथम्भौर पर असफल आक्रमण किया था। अलाउद्दीन खिलजी ने 1301 में रणथम्भौर पर आक्रमण कर दिया। इसका मुख्य कारण हम्मीर द्वारा अलाउद्दीन खिलजी के विरुद्ध मंगोल
शरणार्थियों को आश्रय दना था। किला ने जीत पाने के कारण अलाउद्दीन ने हम्मीर के सेनानायक रणमल और रतिपाल को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया। हम्मीर ने आगे बढ़कर शत्रु सेना का सामना किया पर वह वीरोचित गति का प्राप्त हुआ। हम्मीर की रानी रंगादेवी और पुत्री ने जौहर व्रत द्वारा अपने धर्म की रक्षा की। यह राजस्थान का प्रथम जौहर माना जाता है। हम्मीर के साथ ही रणथम्भौर के चौहानों का राज्य समाप्त हा गया। हम्मीर के बार में प्रसिद्ध है ‘‘तिरिया-तेल, हम्मीर हठ चढ़ ने दूजी बार।’’


जालौर की चौहान शाखा का संस्थापक कीर्तिपाल था। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालिपुर और किले का सुवर्णगिरि मिलता है, जिसका अपभ्रंष में सोनगढ़ कहते हैं। इसी पर्वत के नाम से चौहानों की यह शाखा सानगरा कहलायी। इस शाखा का प्रसिद्ध शासक कान्हड़दे चौहान  था। दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर को जीतने से पर्व 1308 में सिवाना पर आक्रमण किया। उस समय चौहानां के एक सरदार जिसका नाम सातलदेव था, दुर्ग का रक्षक था। उसन अनेक स्थानों पर तुर्कां का  छकाया था। इसलिए उसके शौर्य की धाक
राजस्थान में जम चुकी थी। परन्तु एक राजद्रोही भावले नामक सैनिक द्वारा विश्वासघात करने के कारण सिवाना का पतन हा गया और अलाउद्दीन ने सिवाना जीतकर उसका नाम खैराबाद रख दिया। इस विजय के पश्चात्  1311 में जालौर का भी पतन हा गया और वहाँ का शासक कान्हड़दव वीर गति का प्राप्त हुआ। वह शूरवीर योद्धा, दशाभिमानी तथा चरित्रवान व्यक्ति था। उसन अपन अदम्य साहस तथा सूझबझ से किले निवासियों, सामन्तां तथा राजपूत जाति का नतृत्व कर एक अपर्व ख्याति अर्जित की थी।


वर्तमान हाड़ौती क्षत्र पर चौहान वशीय हाड़ा
राजपूतों का अधिकार था। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र पर मीणाओं का अधिकार था। ऐसा माना जाता है कि बन्दा मीणा के नाम पर ही बूंदी का नामकरण हुआ। कुंभाकालीन राणपुर के लेख में बूंदी का नाम वृन्दावती मिलता है। राव देवा ने मीणाओं को पराजित कर 1241 में बूंदी राज्य की  स्थापना की थी। बूंदी के प्रसिद्ध किले तारागढ़ का निर्माण बरसिंह हाड़ा ने करवाया था। तारागढ़ ऐतिहासिक काल में भित्तिचित्रां के लिए विख्यात रहा है। बूंदी के सुर्जनसिंह ने 1569 में अकबर की अधीनता स्वीकार की थी। बूंदी की प्रसिद्ध चौरासी खभों की छतरी शत्रुसाल हाड़ा का स्मारक है, जो 1658 में शामूगढ़ के युद्ध में औरंगजेब के विरुद्ध शाही सेना की ओर से लड़ता हुआ मारा गया था। बुद्धसिंह के शासनकाल में मराठों ने बूंदी रियासत पर आक्रमण किया था। प्रारम्भ में कोटा बूँदी राज्य का ही भाग था, जिसे शाहजहाँ ने ब ँदी से अलग कर माधोसिंह का सौंपकर 1631 ई. में नये राज्य के रूप में मान्यता दी थी। कोटा राज्य का दीवान झाला जालिमसिंह इतिहास चर्चित व्यक्ति रहा है। कोटा रियासत पर उसका पर्ण नियन्त्रण था। कोटा मेंे ऐतिहासिक काल से आज तक कृष्ण भक्ति का प्रभाव रहा है। इसलिए कोटा का नाम नन्दग्राम भी मिलता हैं। बूंदी-कोटा में सांस्कृतिक उपागम के रूप में यहाँ की चित्रशैलियाँ विख्यात रही हैं। बूंदी में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ अंकन हुआ है, वहीं कोटा शैली शिकार के चित्रों के लिए     विख्यात रही है। 
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