Wednesday, March 28, 2012

राजस्थानी चित्रशैलियाँ


राजस्थानी चित्रशैलियाँ

राजस्थानी चित्रशैली का पहला वैज्ञानिक विभाजन आनन्द कुमार स्वामी ने किया था। उन्होंने 1916 में राजपूत पेन्टिंग नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने राजपूत पेन्टिंग में पहाड़ी चित्रशैली को भी शामिल
किया। परन्तु अब व्यवहार में राजपूत शैली के अन्तर्गत केवल राजस्थान की चित्रकला को ही स्वीकार करते हैं। वस्तुतः राजस्थानी चित्रकला से तात्पर्य उस चित्रकला से है, जो इस प्रान्त की धरोहर है और पूर्व में राजपूताना में प्रचलित थी।

  राजस्थान चित्रशैली का क्षेत्र अत्यन्त समृद्ध है। उसकी समृद्धि के अनेक केन्द्र हैं। यह राजस्थान के व्यापक भू-भाग में फैली हुई है। राजस्थानी चित्रकला की जन्मभूमि मेदपाट (मेवाड़) है, जिसने अजन्ता चित्रण परम्परा को आगे बढ़ाया। राजस्थानी चित्रकला की प्रारम्भिक परम्परा के अनेक सचित्र ग्रन्थ, लघु चित्र एवं भित्ति चित्र उपलब्ध होते हैं, जो उसके उद्भव को रेखांकित करने में सहायक हैं। 
  राजस्थानी चित्रकला पर प्रारम्भ में जैन शैली, गुजरात शैली और अपभ्र ंश शैली का प्रभाव बना रहा, किन्तु बाद में राजस्थान की चित्रशैली मुगल काल से समन्वय स्थापित कर परिमार्जित होने लगी।
सत्रहवीं शताब्दी से मुगल साम्राज्य के प्रसार और राजपूतों के साथ बढ़ते राजनीतिक और वैवाहिक सम्बन्धों के फलस्वरूप राजपूत चित्रकला पर मुगल शैली का प्रभाव बढ़ने लगा। कतिपय विद्वान 17वीं शताब्दी और 18वीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल को राजस्थानी चित्रकला का स्वर्णयुग मानते हैं। आगे चलकर अंग्रेजों के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव एवं लड़खड़ाती आर्थिक दशा से राजस्थानी चित्रकला को आघात लगा। फिर भी, कला किसी न किसी रूप में जीवित रही।


राजस्थानी चित्रशैलियों का वर्गीकरण

भौगोलिक एवं सांस्कृतिक आधार पर राजस्थानी चित्रकला को हम चार शैलियों (स्कूल) में विभक्त कर सकते हैं, एक शैली में एक से अधिक उपशैलियाँ है - जैसा कि आगे दर्शाया गया है -

 (1)  मेवाड़ शैली - चावंड, उदयपुर, नाथद्वारा, देवगढ़ आदि।
 (2)  मारवाड़ शैली - जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़ आदि।
 (3)  हाड़ौती शैली - बूँदी, कोटा आदि।
 (4)  ढूँढाड़ शैली - आम्बेर, जयपुर, अलवर, उणियारा, शेखावटी आदि।

 विभिन्न शैलियों एवं उपशैलियों में परिपोषित राजस्थानी चित्रकला निश्चय ही भारतीय चित्रकला में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। अन्य शैलियों से प्रभावित होने के उपरान्त भी राजस्थानी चित्रकला की मौलिक अस्मिता है।

विशेषताएँ
(1)  लोक जीवन का सान्निध्य, भाव प्रवणता का प्राचुर्य, विषय-वस्तु का वैविध्य, वर्ण वैविध्य, प्रकृति परिवेश देश काल के अनुरूप आदि विशेषताओं के आधार पर इसकी अपनी पहचान है।
(2)  धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों में पोषित चित्रकला में लोक जीवन की भावनाओं का बाहुल्य, भक्ति और श्रृंगार का सजीव चित्रण तथा चटकीले, चमकदार और दीप्तियुक्त रंगों का संयोजन विशेष रूप से देखा जा सकता है।
(3)  राजस्थान की चित्रकला यहाँ के महलों, किलों, मंदिरों और हवेलियों में अधिक दिखाई देती है।
(4) राजस्थानी चित्रकारों ने विभिन्न ऋतुओं का श्रृंगारिक चित्रण कर उनका मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का अंकन किया है।
(5)  मुगल काल से प्रभावित राजस्थानी चित्रकला में राजकीय तड़क-भड़क, विलासिता, अन्तःपुर के दृश्य एवं झीने वस्त्रों का प्रदर्शन विशेष रूप से देखने को मिलता है।
(6)  चित्र संयोजन में समग्रता के दर्शन होते हैं। चित्र में अंकित सभी वस्तुएँ विषय से सम्बन्धित रहती हैं और उसका अनिवार्य महत्त्व रहता है। इस प्रकार इन चित्रों में विषय-वस्तु एवं वातावरण का
सन्तुलन बना रहता है। मुख्य आकृति एवं पृष्ठभूमि की समान महत्ता रहती है।
(7) राजस्थानी चित्रकला में प्रकृति का मानवीकरण देखने को मिलता है। कलाकारों ने प्रकृति को जड़ न मानकर मानवीय सुख-दुःख से रागात्मक सम्बन्ध रखने वाली चेतन सत्ता माना है। चित्र में जो भाव नायक के मन में रहता है, उसी के अनुरूप प्रकृति को भी प्रतिबिम्बित किया गया है।
(8)  मध्यकालीन राजस्थानी चित्रकला का कलेवर प्राकृतिक सौन्दर्य के आँचल में रहने के कारण अधिक मनोरम हो गया है।
(9) मुगल दरबार की अपेक्षा राजस्थान के चित्रकारों को अधिक स्वतन्त्रता थी। यही कारण था कि राजस्थानी चित्रकला में आम जन जीवन तथा लोक विश्वासों को अधिक अभिव्यक्ति मिली।
(10)  नारी सौन्दर्य को चित्रित करने में राजस्थानी चित्रशैली के कलाकारों ने विशेष सजगता दिखाई है।



मेवाड़ शैली
      राजस्थानी चित्रशैली में मेवाड़ शैली के अन्तर्गत पोथी ग्रंथों का अधिक चित्रण हुआ है। प्रारम्भिक चित्रित नमूनों में श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णी, सुपार्श्वनाथचरितम् हैं। महाराणा कुम्भा के समय कला की उल्लेखनीय प्रगति हुई। महाराणा प्रताप के समय छप्पन की पहाड़ियों में स्थित राजधानी चावण्ड में भी चित्रकला का विकास हुआ। इस काल की प्रसिद्ध कृति ढोलामारू (1592 ई.) है, जो राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है। महाराणा अमरसिंह के समय का 1605 ई. में चित्रित रागमाला मेवाड़ शैली का प्रमुख ग्रन्थ है। इन चित्रों को निसारदीन नामक चित्रकार ने चित्रित किया। इन चित्रों में भारत की पन्द्रहवीं शताब्दी तक विकसित होने वाली पश्चिमी चित्रांकन शैली के अवशेषों के दर्शन होते हैं। चित्रकला की दृष्टि से महाराणा जगतसिंह प्रथम का काल स्वर्णयुग कहलाता है। इस समय साहबदीन कलाकार ने महाराणाओं के व्यक्ति चित्र बनाये। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक मेवाड़ शैली में बड़ा निखार आया। जगतसिंह प्रथम के समय राजमहल में चितेरों की ओवरी नाम से कला विद्यालय स्थापित किया गया। इसे तस्वीरां रो कारखानों नाम से भी पुकारा जाता था। मेवाड़ शैली राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली रही है मेवाड़ शैली में शिकार के दृश्यों में त्रिआयामी प्रभाव दर्शाया गया है। 

      नाथद्वारा शैली में श्रीनाथजी आकर्षण के प्रमुख केन्द्र हैं। अतः यहाँ श्रीनाथजी की विभिन्न झांकियों के चित्र विशेष रूप से बनाये गये हैं। श्रीनाथजी को यहाँ श्रीकृष्ण का प्रतीक मानकर पूजा की जाती है। इसी कारण विविध कृष्ण लीलाओं को चित्रों में अंकित करने की प्रथा यहाँ प्रचलित हुई है। मेवाड़ के अन्तर्गत नाथद्वारा में पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय की भारत प्रसिद्ध प्रमुख पीठ है, जो श्रीनाथजी की भक्ति का प्रमुख केन्द्र होने के कारण मेवाड़ की चित्र परम्परा में नया इतिहास जोड़ता है। श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे बड़े आकार के कपड़े पर जो पर्दे बनाये जाते हैं, उन्हें पिछवाई कहते हैं, जो नाथद्वारा शैली की मौलिक देन है। वर्तमान में इस शैली में श्रीनाथ जी के प्राकट्य एवं लीलाओं से सम्बन्धित असंख्य चित्र व्यावसायिक दृष्टि से कागज और कपड़े पर बनने लगे हैं। इस शैली की पृष्ठभूमि में सघन वनस्पति दर्शायी गयी है, केले के वृक्ष की प्रधानता है। अठारहवीं शताब्दी में बने नाथद्वारा शैली के चित्रों में अधिक कलात्मकता है, परन्तु बाद के चित्रों में व्यावसायिकता का अधिक पुट आ गया है।

      जब महाराणा जयसिंह के राज्यकाल में रावत द्वारिका दास चूँडावत ने देवगढ़ ठिकाना 1680 ई. में स्थापित किया, तदुपरान्त, देवगढ़ शैली का जन्म हुआ। यहाँ के रावत सौलहवें उमराव कहलाते थे, जिन्हें प्रारम्भ से ही चित्रकला में गहरी अभिरुचि थी। इस शैली में शिकार, हाथियों की लड़ाई, राजदरबार का दृश्य, कृष्ण-लीला आदि के चित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस शैली के भित्ति चित्र अजारा की ओबरी’ ‘मोती महल’, आदि में देखने को मिलते हैं। इस शैली को मारवाड़, ढूँढाड़ एवं मेवाड़ की समन्वित शैली के रूप में देखा जाता है। इस शैली में हरे, पीले रंगों का प्रयोग अधिक हुआ है। 



मारवाड़ शैली
      मारवाड़ शैली के विषय मूलरूप में अन्य शैलियों से भिन्न हैं। यहाँ मारवाड़ी साहित्य के प्रेमाख्यान पर आधारित चित्रण अधिक हुआ है। ढोलामारू रा दूहा, वेलि क्रिसन रूक्मिणी री, वीरमदे सोनगरा री बात, चन्द्रकुँवर री बात, मृगावती रास, फूलमती री वार्ता, हंसराज बच्छराज चौपाई आदि साहित्यिक  कृतियों के चरित्र मारवाड़ चित्रकला के आधार रहे हैं। इस चित्र शैली में प्रेमाख्यानों के नायक-नायिकाओं के भाव-भंगिमाओं का सुन्दर चित्रण हुआ है। बारहमासा चित्रण तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश में नायक-नायिका के मनोभावों का सफल उद्घाटन करते हैं। मारवाड़ शैली में लाल, पीले रंग का बाहुल्य
है। हाशिये में भी पीले रंग का प्रयोग किया गया है। वीरजी चित्रकार द्वारा 1623 ई. में निर्मित रागमाला  चित्रावली का ऐतिहासिक महत्त्व है। जोधपुर शैली में एक मोड़ महाराजा जसवन्तसिंह के समय में आया। कृष्ण चरित्र की विविधता और मुगल शैली का प्रभाव इस समय के चित्रों में दृष्टव्य है। उन्नीसवीं शताब्दी में मारवाड़ नाथ सम्प्रदाय से प्रभावित रहा। अतः राजा मानसिंह के समय चित्रकला मठों में परिपोषित हुई।
      मारवाड़ शैली के अन्तर्गत बीकानेर शैली का प्रादुर्भाव सोलहवीं शताब्दी के अन्त से माना जाता है। बीकानेर शैली के उद्भव का श्रेय यहाँ के उस्ताओं को दिया जाता है। निरन्तर अभ्यास व कला-कौशल के कारण इन मुस्लिम कलाकारों को उस्ताद कहकर सम्बोधित किया  जाता था। कालान्तर में इन उस्तादों को उस्ता कहा जाने लगा। इन्होंने उस्ता कला को जन्म दिया। ऊँट की खाल पर सोने का चित्रण उस्ता कला कहलाती है। यह बीकानेर कला की एक अनौखी विशेषता है। अकबर ने स्वयं अपने दरबार में इन उस्ता कलाकारों को सम्मानजनक स्थान प्रदान किया। महाराजा अनूपसिंह के काल में विशुद्ध बीकानेर शैली के दिग्दर्शन होते हैं। इस काल में रसिक प्रिया, बारहमासा, भागवत पुराण से सम्बन्धित चित्र तैयार हुए। बीकानेर शैली में मुगल शैली एवं दक्कन शैली का समन्वय है। 
      राजस्थानी चित्रकला में किशनगढ़ शैली का विशिष्ट स्थान है। इस शैली पर वल्लभ सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रभाव है। सावन्तसिंह उर्फ नागरीदास के शासनकाल से इस शैली को स्वतन्त्र स्वरूप प्राप्त हुआ। नागरीदास के काव्य प्रेम, गायन, बणीठणी के संगीत प्रेम और कलाकार मोरध्वज निहालचंद के चित्रांकन ने किशनगढ़ की कला को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया। इस शैली का प्रमुख चित्र बणीठणी हैं। नारी सौन्दर्य इस शैली की प्रमुख विशेषता है। राधा- कृष्ण की प्रेम लीला इस शैली का लक्षण है। काम और आध्यात्मिक प्रेम ने किशनगढ़ शैली की चित्रकला को जीवनदान दिया।



हाड़ौती शैली 
हाड़ौती शैली के अन्तर्गत बूँदी शैली में पशु-पक्षियों के चित्रण की बहुलता है। यहाँ के शासक राव छत्रसाल ने प्रसिद्ध रंगमहल बनवाया, जो सुन्दर भित्तिचित्रों से सुसज्जित है। समय-समय पर बूँदी शैली में
ग्रंथ चित्रण एवं लघु चित्रों के माध्यम से इतना चित्रण हुआ कि आज संसार भर के संग्रहालयों में बूँदी शैली के चित्रों की उपस्थिति है। यहाँ के शासक भावसिंह की कलाप्रियता ने संगीत, काव्य और चित्रकला को उत्कृष्टता प्रदान की। सत्रहवीं सदी में बूँदी में उत्कृष्ट चित्र बने। बूँदी शैली के अन्तर्गत राव उम्मेदसिंह का जंगली सूअर का शिकार करते हुए बनाया चित्र (1750 ई.) प्रसिद्ध है। राजा उम्मेदसिंह के काल में बूँदी शैली में मोड़ आया, जिसमें भावनाओं की सहजता, प्रकृति की विविधता, पशु-पक्षियों सतरंगे बादलों तथा जलाशयों का चित्रण बहुलता से हुआ। बूँदी शैली मेवाड़ शैली से प्रभावित रही है। राग रागिनी, नायिका भेद, ऋतु वर्णन, बारहमासा, कृष्णलीला दरबार, शिकार, हाथियों की लड़ाई, उत्सव अंकन आदि बूँदी शैली के चित्राधार रहे हैं। 

  कोटा शैली में आकृतियों का चित्रण अत्यन्त सुन्दर हुआ है। बूँदी कलम की ही शाखा कोटा शैली का स्वतन्त्र अस्तित्व स्थापित करने का श्रेय राजा रामसिंह को है। रामसिंह के पश्चात् महारावल भीमसिंह ने कोटा राज्य में कृष्ण भक्ति को विशेष महत्त्व दिया, जिसके फलस्वरूप कोटा की चित्रकला में वल्लभ सम्प्रदाय का पूर्ण प्रभाव अंकित हुआ। कोटा शैली में राजा उम्मेदसिंह के शासनकाल में एक मोड़ आया। उनके शिकार प्रेम के कारण कोटा शैली में इस समय शिकार का बहुरंगी वैविध्यपूर्ण चित्रण हुआ, जो कोटा शैली का प्रतीक बन गया। 1768 ई. में डालू नाम के चित्रकार द्वारा चित्रित रागमाला सैट कोटा कलम का सर्वाधिक बड़ा रागमाला सैट है। 


ढूँढाड़ शैली
ढूँढाड़ शैली में मुगल प्रभाव सर्वाधिक है। रज्मनामा (महाभारत का फारसी अनुवाद) की प्रति अकबर के लिए इसी शैली के चित्रकारों ने तैयार की थी। इसमें 169 बड़े आकर के चित्र हैं। आमेर शैली
के प्रारम्भिक चित्रित ग्रंथों में यशोधरा चरित्र है। मानसिंह के पश्चात् मिर्जा राजा जयसिंह ने आमेर चित्रशैली के विकास में योगदान दिया। इस समय बिहारी सतसई पर आधारित बहुसंख्य चित्र बने। आमेर शैली के चित्र रसिकप्रिया और कृष्ण-रूक्मणी नामक चित्रित ग्रन्थो में देखने को मिलते हैं, जिनकी रचना मिर्जा राजा जयसिंह ने अपनी रानी चन्द्रावती के लिए करवाई थी। इस शैली की समृद्ध परम्परा भित्तिचित्रों के रूप में उपलब्ध है।

  जयपुर शैली का विकास महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय के काल से शुरू होता हैं, जब 1727 ई. में जयपुर की स्थापना हुई। महलों और हवेलियों के निर्माण के साथ भित्ति चित्रण जयपुर की विशेषता बन गयी। सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरीसिंह के समय साहिबराम नामक प्रतिभाशाली चितेरा था, जिसने आदमकद चित्र बनाकर चित्रकला की नयी परम्परा डाली। ईश्वरीसिंह के पश्चात् सवाई माधोसिंह प्रथम के समय गलता के मन्दिरों, सिसोदिया रानी के महल, चन्द्रमहल, पुण्डरीक की हवेली में कलात्मक भित्ति चित्रण हुआ। इसके पश्चात् सवाई प्रतापसिंह के समय चित्रकला की विशेष उन्नति हुई। इस समय राधाकृष्ण की लीलाओं, नायिका भेद, रागरागिनी, बारहमासा आदि का चित्रण प्रमुखतः हुआ।  बडे़-बड़े पोट्रेट (आदमकद या व्यक्ति चित्र) एवं भित्ति चित्रण की परम्परा जयपुर शैली की विशिष्ट देन है। उद्यान चित्रण में जयपुर के कलाकार दक्ष थे। जयपुर चित्रों में हाथियों की विविधता पायी जाती है। 

 ढूँढाड़ शैली के अन्तर्गत  अलवर शैली के विकास में राव राजा प्रतापसिंह, बख्तावरसिंह एवं विनयसिंह ने विशेष योगदान दिया। अलवर की चित्रकला के उदय में विनयसिंह का वही योगदान है जो मुगल चित्रकला में अकबर का है। उन्होंने राज्य के कला संग्रह को वैभवशाली बनाया। इनके समय प्रमुख चित्रकार बलदेव था। विनयसिंह ने शेखसादी की गुलिस्ताँ की पाण्डुलिपि को बलदेव से चित्रित करवाया। अलवर शैली में ईरानी, मुगल और जयपुर शैली का उचित समन्वय है। वेश्याओं के चित्र केवल अलवर शैली में ही बने हैं। महाराव शिवदानसिंह के समय कामशाó के आधार पर चित्रण हुआ। मूलचंद नामक चित्रकार हाथीदाँत पर चित्र बनाने में प्रवीण था। चिकने एवं उज्ज्वल रंगों का प्रयोग इस शैली में हुआ है। राजस्थान की विभिन्न शैलियों के मध्य अपनी कमनीय विशेषताओं के कारण अलवर शैली के लघुचित्रण की अपनी पहचान है। 

  उणियारा एवं शेखावाटी चित्र शैली परम्परा ढूँढाड़ चित्रशैली की ही शाखाएँ हैं। उणियारा शैली पर जयपुर एवं बूँदी शैली का प्रभाव है। नरूका ठिकाने वंश ने इस शैली के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। इस शैली के श्रेष्ठ कलाकार धीमा, मीरबक्स, काशी, रामलखन, भीम आदि हुए। जयपुर शैली के भित्ति चित्रण का सर्वाधिक प्रभाव शेखावटी पर पड़ा है। उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर बीसवीं सदी प्रारम्भ तक शेखावटी के श्रेष्ठीजनों ने बड़ी-बड़ी हवेलियाँ बनाकर इस कला को प्रोत्साहन एवं प्रश्रय प्रदान किया। नवलगढ़, रामगढ़, फतेहपुर,, लक्ष्मणगढ़, मुकुन्दगढ़, मंडावा, बिसाऊ आदि स्थानों का भित्ति चित्रण विशेष दर्शनीय हैं। फतेहपुर स्थित गोयनका की हवेली भित्तिचित्रों की दृष्टि से उल्लेखनीय है। कम्पनी शैली का प्रभाव हवेली चित्रणों में देखने को मिलता है। शेखावटी शैली में तीज-त्योहार, होली-दीपावली के उत्सवों का अंकन, शिकार, महफिल, नायक-नायिका भेद एवं अन्य शृंगारी भावों का अंकन हुआ है।

1 comment:

  1. AnonymousAugust 27, 2015 at 10:36 PM

    very good

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