Monday, March 19, 2012

कर्ज और आर्थिक सहायता की राजनीति


 कर्ज और आर्थिक सहायता की राजनीति

 अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आई.एम.एफ), विश्व बैंक जैसी संस्थायें जब देशों को कर्जा देती हैं तो वह उन देशों के विकास के लिये नहीं होता है, बल्कि इस बात के लिये होता है कि पिछड़ी अर्थव्यवस्थाओं को पनपने न दिया जाय। यह कर्जा इसलिये दिया जाता है कि उन देशों में आत्म निर्भरता न आने पाये और उन देशों की गरीबी कभी भी दूर न हो।
विश्व बैंक गरीब देशों को जो मदद देता है वह अमीर देशों से नहीं आती बल्कि अमीर देशों को मदद तथाकथित तीसरी दुनिया से जाती है। जाहिर है कि विकासशील और अविकसित देशों की मदद के नाम पर चलने वाले इस प्रवाह को रोकने में और उसे सचमुच विकासशील और अविकसित देशों की बेहतरी के लिये लगाने में विकसित देश कोई रूचि नहीं रखते। अगर उनकी रूचि है तो गरीब व अविकसित देशों को अपनी अर्थव्यवस्था के साथ पोषक अर्थव्यवस्थाओं के रूप में जोड़े रखने में। ताकि वे अपनी इस्तेमाल की हुयी प्रौद्योगिकी और बेकार हुये संयंत्रों को इन देशों को बेच सकें और इस तरह ये अविकसित व गरीब देश प्रौद्योगिकी के स्तर पर हमेशा पिछड़े रहें और उनके कर्जदार भी बने रह सकें। इसलिये विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष आदि संस्थाओं से जो भी मदद दी जाती है वह उन देशों को पिछड़ा रखने का एक साधन है।
विश्व बैंक व अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के आंकड़े बताते हैं कि अमीर देशों से गरीब देशों को मदद मिलने की बजाय 50 अरब डालर (95 खरब रूपये) का कच्चा माल और उत्पादन उल्टे इन्हीं देशों को प्रतिवर्ष मुनाफे के तौर पर उपलब्ध हो जाते हैं। यानि ये अमीर देश हमारी मदद नहीं करते बल्कि हम ही प्रकारान्तर से उनकी मदद करते आ रहे हैं। अगर हर साल मिलने वाली नयी सहायता की रकम घटा दी जाय, तो लगभग 40 अरब डालर (760 अरब रूपये लगभग) है, तो भी 10 अरब डालर की रकम विकासशील और अविकसित देशों से इन विकसित अमीर देशों में जाती रहती है। यह है इन देशों की हमारे विकास के लिये मदद और यह है विकासशील देशों की सरकारों की विकास संबंधी अवधारणा।
अमीर देशों की दृष्टि से देखा जाय तो उनको कई स्तरों पर लाभ होता है पहला यह कि विकासशील और अविकसित देश उनके द्वारा प्रयुक्त और बेकार प्रौद्योगिकी और संयंत्र लेने लायक हो जाते हैं, यानि जिस प्रौद्योगिकी ओर संयंत्रों से वे पहले ही लाभ उठा चुके हैं और जो अब उनके लिये बेकार हो गये हैं, उसे विकासशील या अविकसित देशों में ऊँची कीमत में पटकने का इंतजाम हो जाता है।
दूसरा लाभ यह है कि इस तरह से सहायता प्राप्त करने वाले देश प्रौद्योगिकी के मामले में तो पिछड़े रहते ही हैं, वे भारी कर्जदार भी बने रहते हैं और यह कर्जदारी साल-दर साल बढ़ती रहती है। इस तरह वे देश इन पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओ से जुड़े रहने को मजबूर बोझ ऊपर से लद जाता है। पश्चिमी देशों के इस दुष्चक्र में फंसकर इन देशों की अर्थव्यवस्था चौपट होने की स्थिति में पहुँच जाती है।
तीसरा फायदा अमीर देशों को गुप्त पूँजी पलायन से मिलता है। तीसरी दुनिया के शासक वर्ग अपने कालेधन को चोरी-छिपे बाहर ले जाकर पश्चिमी बैंकों में जमा करते हैं और इस तरह पश्चिम के उद्योगों को बिना ब्याज की पूँजी उपलब्ध कराते हैं। ज्ञात रहे कि कालेधन पर ब्याज नहीं मिलता है, चोरी का धन जमा करने वाली बैंक केवल उस कालेधन की सुरक्षा की गारंटी देती है। पश्चिम की जो सम्पन्नता आज है वह उसी पूँजी के कारण है। अगर वह पूँजी मिलना बन्द हो जाये तो उसकी सम्पन्नता आधी रह जायेगी।
अमीर देशों के पास तीसरी दुनिया के देशों की कर्जदारी बढ़ाने का एक जरिया और भी है; औश्र वह है गरीब देशों के कच्चे माल की कीमत विश्व बाजारों में गिरा देना। अमीर देश जब देखते हैं कि गरीब देशों की सम्पन्नता बढ़ रही है तो कच्चे माल की खरीद पर रोक लगा दी जाती है और आपूर्ति मांग के नियम के मुताबिक मांग कम होने पर चीजों के भाव हमेशा गिरते है। इस तरह कच्चा माल बेचने वाले इन देशों में गरीबी और बेरोजगारी फैलती है।
 कर्जे का दुष्चक्र
 विकास का जो ढाँचा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने देश को दिया है वह लगातार देश को कर्जे के जाल में फँसाता चला जा रहा है। कर्जदारी में वृद्धि के साथ ही सूद भुगतान भी बढ़ रहा है। 1984 में यह 1.5 अरब डालर (28.5 अरब रूपये लगभग) था, जो 1990 के अन्त तक 4 अरब डालर (76 अरब रूपये लगभग) हो गया। सन् 1991 में यह सूद 4.6 अरब डालर (87.4 अरब रूपये लगभग) तक पहुँच गया।
जुलाई 1995 तक देश के ऊपर कुल विदेशी कर्ज 4,53,397 करोड़ रूपये (140 अरब डालर से भी अधिक) हो चुकी है। इस कर्जे के ब्याज के रूप में प्रतिवर्ष लगभग 49,508 करोड़ रूपये (15 अरब डालर से भी अधिक) चुकाने पड़ रहे है। इस विदेशी कर्जे में वह हिस्सा शामिल नहीं है जो सरकार द्वारा विदेशी सहायता और साफ्ट लोन के रूप में लिया
जाता है। यदि इसे भी शामिल कर लिया जाय तो कुल कर्जा लगभग 6,91,511 करोड़ रूपये के बराबर बैठता है। इस समय भारत दुनिया में दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा कर्जदार देश है। पिछले वर्ष तक भारत की स्थिति दुनिया में तीसरे सबसे बड़े कर्जदार देश की थी। भारत से पहले मैक्सिको और ब्राजील देशों का नम्बर आता था, लेकिन 1995 में विदेशी कर्ज के मामले में भारत ने मैक्सिको को भी पीछे छोड़ दिया है।
विदेशी कर्जे पर चुकाया जाने वाला ब्याज तथा सरकार द्वारा कम समय के लिये लिया गया कर्ज, यदि दोनों को मिला दिया जाय तो तस्वीर बहुत ही भयावह है। केन्द्र सरकार पर घरेलू कर्ज और देनदारियों में भी खूब बढ़ोतरी हो रही है। देनदारियाँ ऐसे कर्ज को कहते है, जिस पर ब्याज नहीं देना पड़ता। 1980-81 में केन्द्र सरकार पर घरेलू कर्ज और घरेलू देनदारियाँ 48,451 करोड़ रूपये थी, जो 1990-91 मे बढ़कर 2,83,033 करोड़ रूपये हो गयी। मार्च 95 तक ये 4,83,545 करोड़ रूपये के बराबर हो गयीं। इसी प्रकार केन्द्र सरकार पर विदेशी देनदारियाँ 1980-81 में 11,298 करोड़ रूपये थीं जो 1990-91 में 3,21,525 करोड़ रूपये के बराबर हो गयीं। इसी तरह कुल देनदारियाँ (घरेलू कर्ज सहित), जो 1980-81 में 59,749 करोड़ रूपये थी, वह मार्च 1995 में 5,33,053 करोड़ रूपये हो गयी। इन देनदारियों में यदि विदेशी कर्ज को जोड दिया जाय तो स्थिति अत्यन्त ही भयावह दिखती है। देश के सकल घरेलू उत्पाद से भ अधिक विदेशी कर्ज तथा देनदारियों का आंकड़ा बैठता है। देश का सकल घरेलू उत्पाद लगभग 8,00,000 करोड़ रूपये के बराबर है, लेकिन विदेशी कर्ज ओर देनदारियाँ इस डेढ़ गुना (लगभग) अधिक है। इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह विदेश कर्ज और देनदारियों पर ही निर्भर हो गयी है। विदेशी कर्ज और देनदारियों के दुष्चक्र में फंस कर लैटिन अमरीका, अफ्रीका और एशिया के कई देश बुरी तरह बरबाद हो चुके हैं। कई देशों की हालत तो ऐसी है कि वे यदि अपनी पूरी सम्पत्ति बचे भी दें तो भी विदेशी कर्जे को नहीं चुका सकता हैं। कई देशों के हालाता ऐसे हो गये हैं कि उन्हें पुराने कर्ज चुकाने के लिये नया कर्ज लेना पड़ता है। इस तरह कर्जे का फन्दा ऐसे देशों के गले में कसता ही जा रहा है।
इस समय स्थिति यह है कि देश की निर्यात से होने वाली आय का 50 प्रतिशत अंश प्रतिवर्ष सूद को चुकाने में खर्च हो जाता है। शेष 50 प्रतिशत निर्यात आय, प्रतिवर्ष होने वाले आयात का मात्र 42 प्रतिवर्ष ही पूरा कर पाती है। विकास की उल्टी दिशा के कारण देश कर्ज के दुष्चक्र में फंस गया है।
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