Wednesday, February 29, 2012

राजस्थान का मरूस्थलीय प्रदेश


मरूस्थलीय प्रदेश

  राजस्थान के पश्चिम मे विस्तृत एवं विशाल मरूस्थल न  केवल राज्य का अपितु सम्पूर्ण भारत का एक विशिष्ट भौगोलिक प्रदेश है जिसे भारत का विशाल मरूस्थल, अथवा थार का मरूस्थल के नाम से जाना जाता है। इस प्रदेश का विस्तार राज्य मे 250उत्तरी से 300उत्तरी अक्षांश और 690300 पूर्वी से 700450पूर्वी देशान्तर के मध्य है। अरावली पर्वत शृखला के पश्चिम मे यह प्रदेश 300 मि.मी. से कम वर्षा वाले क्षेत्र पर फैला बालू का विशाल क्षेत्र है। इसके अन्तर्गत राज्य के बाड़मेर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, गंगानगर, हनुमानगढ़ जिले पूर्ण मरूस्थल तथा जालौर, पालीनागौर चूरू, झुन्झुनू, सीकर जिले अर्द्ध मरूस्थलीय है। प्राकृतिक एवं मानवीय विविधताओ के कारण इस प्रदेश को क्रमश: मरूस्थली, नहरी मरूस्थल, बागड़ प्रदेष आदि मे विभक्त किया जाता है। 

मरूस्थल का उद्भव
  राजस्थान के मरूस्थल की उत्पत्ति के विषय मे भूगर्भवेत्ताओ के मतो मे भिन्नता है। कुछ विद्वान यह स्वीकार करते हे कि जहाँ आज मरूस्थल है वहाँ पूर्व मे उपजाऊ वन आच्छादित आर्द्र प्रदेश था जो कालान्तर मे भूगार्भिक परिवर्तनो से शुष्क मरू भूमि मे परिवर्तित  हो गया। भूगर्भिक प्रमाण स्पष्ट दर्शाते है कि पर्मो -कार्बो निफेरस काल मे पश्चिमी राजस्थान पर विस्तृत समुद्र था। ज्यूरेसिक, क्रिटेशियस और इयोसीन भूगार्भिक युगो मे यह क्षेत्र समुद्र के नीचे था और धीरे-धीरे यहाँ से समुद्र खिसकने लगा, तत्पश्चात् प्लीस्टोसीन काल मे यहाँ मनुष्यो का प्रादुर्भाव हुआ, जो क्रमशः विस्तृत होता गया और मानवीय क्रिया-कलापो ने इसे मरूस्थलीय क्षेत्र बनाने मे महती भूमिका निभाई। फलस्वरूप ईसा पूर्व 4000 से 1000 वर्ष के मध्य इस क्षेत्र में पूर्ण मरूस्थलीय दशाओ का विकास हो गया। यहाँ विद्यमान खारे पानी की झीलो को समुद्रों का अवशेष माना जाता है।

  सर सिरिल फॉक्स के अनुसार, मरूस्थल का दक्षिणी-पश्चिमी एवं सिंध का निचली घाटी वाला भाग अपर टर्शियरी युग तक समुद्र के नीचे रहा। यह तथ्य यहाँ जाये जाने वाली चट्टानों में प्राप्त समुद्री जीवाश्म से स्पष्ट होता है।

  बैलेण्डफोर्ड ने भी इसी प्रकार के विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार समुद्र के निरन्तर पीछे हटने के परिणामस्वरूप सिकुड़न-क्रिया से उत्थित समुद्र तली ने मरूस्थलीय क्षेत्र को जन्म दिया, जिसका प्रमाण इस क्षेत्र की लवणीय झीलें हैं तथा कच्छ का दलदली भाग भी उसी का अवशेष है।

  एक अन्य विचार के अनुसार निरन्तर हवाओं के साथ होने वाला बालू प्रवाह भी इसका कारण माना जाता है। वास्तव में थार का मरूस्थल बालू का विशाल क्षेत्र है।  यहाँ बालू का उद्गम एवं विस्तार के निम्न कारण है-
(1) चट्टानों के निरन्तर अपक्षरण के फलस्वरूप बालू का उद्भव हुआ, यह क्रिया हजारों वर्षों से अनवरत रूप से चल रही है और आज भी जारी है।
(2)  वायु द्वारा उड़ाकर लाना अर्थात् वायूढ़ स्त्रोत, इसका एक प्रमुख कारण है। दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी हवाएँ विशेषतः कच्छ के रन से विशाल यात्रा मे बालू उड़ा कर लाती है। 
(3) ब्रूस-फूट के अनुसार मुहानों के प्राचीन तट वर्तमान भूगर्भिक काल में भी सिंधु घाटी और लूनी बेसिन के उत्तर-पूर्व में लम्बी दूरी तक विस्तृत थे।

राजस्थान के मरूस्थल के सम्बन्ध में यह सत्य है कि यहाँ पहले सरस्वती नदी का प्रवाह था तथा इसके तट पर अनेक अधिवास थे और यह क्षेत्र वनस्पति से युक्त था। कालान्तर में वर्षा की कमी, गर्मी तथा शुष्कता में वृद्धि और अनेक प्राकृतिक कारणों से यह क्षेत्र मरूभूमि में परिवर्तित होता गया। सरस्वती नदी सूखती गई और इसके साथ ही तटवर्ती अधिवास भी उजड़ते गये। विद्वानों के अनुसार वर्तमान में हनुमागढ़ जिले से गुजरने वाले घग्घर का तल वास्तव में सरस्वती का अवशेष है।

  राजस्थान के थार मरूस्थल के सम्बन्ध में यह भी माना जाता है कि इसकी वृद्धि के लिये मानवीय कारक भी उत्तरदायी है। इसमें प्रमुख है वनस्पति का काटना और अनियन्त्रित पशु चारण है। वनस्पति अपनी जड़ों के माध्यम से मिट्टी को संगठित रखती है और जैसे-जैसे वनस्पति कटती जाती है मृदा असंगठित हो रेत में बदल जाती है और हवा के साथ उड़ने लगती है। इसी प्रकार अनियन्त्रित पशु चारण से अर्थात् पशुओं के खुरों से मिट्टी कटती जाती है और निरन्तर यह प्रक्रिया चलने से मिट्टी रेत में बदल जाती है। पशुचारण शुष्क प्रदेशों का प्रमुख उद्यम रहा है और आज भी है और यह मरूस्थलीकरण का एक कारण है।

प्राकृतिक स्वरूप 
  मरूस्थलीय प्रदेश राज्य का ही नहीं अपितु  भारत का एक विशिष्ट प्राकृतिक प्रदेश है, जो यहाँ के उच्चावचीय स्वरूप, जलवायु, प्राकृतिक वनस्पति, मृदा आदि की विशेषताओं से स्पष्ट परिलक्षित होती है।
  धरातल अथवा उच्चावच की दृष्टि यह प्रदेश एक विशाल रेत का सागर है जहाँ दूर-दूर तक बालुका-स्तूप एवं रेत का सागर लहराता रहता है, यद्यपि कहीं-कहीं चट्टानी क्षेत्र भी दृष्टिगत होते हैं। अतः इस मरूस्थल को रेतीला मरूस्थल एवं पथरीला मरूस्थल दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। रेतीले मरूस्थल का विस्तार सम्पूर्ण क्षेत्र के लगभग 85 प्रतिशत क्षेत्र पर है। इस देश की विशिष्ट भू-आकृति बालुका-स्तूप हैं जो विविध रूपों में विस्तृत है। यहाँ के बालुका स्तूपों में अर्द्ध चन्द्राकार (बरखान), अनुप्रस्थ एवं देशान्तरीय बालुका-स्तूप है। ये बालुका स्तूप अति छोटे से 100 से 200 मीटर की चौड़ाई और 10-20 मीटर से अधिकतम 60 मीटर की ऊँचाई तक देखें जा सकते हैं। ये बालुका स्तूप स्थिर न होकर स्थानान्तरित होते रहते है तथा इनके स्वरूप में भी परिवर्तन आता रहता है।

 इसके विपरीत पथरीला मरूस्थल जैसलमेर, बीकानेर के उत्तरी भाग तथा जोधपुर की फलौदी तहसील के कुछ भागों में स्थित है। यहाँ बलुआ और चूने के पत्थर के शैल है, जिनका उपयोग स्थानीय इमारती पत्थर के रूप में किया जाता है।
  मरूस्थलीय प्रदेश के उत्तरी भाग अर्थात् हनुमानगढ़-गंगानगर जिलों में स्थित घग्घर का मैदान एक विशिष्ट प्राकृतिक प्रदेश है। यह घग्घर नदी का तल है जिसे अब मृत नदी कहा जाता है किन्तु वर्षा काल में इसमें न केवल जल प्रवाहित होता है अपितु बाढ़ आ जाती है ै। 
  जलवायु की दृष्टि से यह प्रदेश उष्ण-मरूस्थलीय जलवायु वाला है जहाँ उच्चतम तापमान ग्रीष्म काल में तथा शीतकाल भी पर्याप्त ठण्डा होता है। दैनिक तापान्तर अधिक होने का कारण यहाँ विस्तृत रेत है जो शीघ्र गर्म और शीघ्र ठण्डी हो जाती हैं। यह प्रदेश भारत के उष्णतम प्रदेशों में से है। गर्मी में यहाँ अधिकांशतः 400 से.ग्रे. से अधिक तापमान होता है जो 500से.ग्रे. तक पहुँच जाता है। जबकि शीत ऋतु में औसत तापमान 120से.ग्रे. से 160से.ग्रे. रहता है किन्तु चूरु, गंगानगर में यह 8 से 100से.गे्र. होता है जो कभी-कभी जमाव बिन्दु अर्थात् जीरो डिग्री से.गे्र. तक पहुँच जाता है।

 जुलाई से सितम्बर तक के महीने आद्रर्र  होते हैं जबकि सापेक्षित आर्द्रता 55 प्रतिशत से 70 प्रतिशत तक रहती है, मई-जून में यह मात्र 30 प्रतिशत रह जाती है। ग्रीष्म काल में धूलभरी आंधियाँ चलना यहाँ सामान्य है। इस प्रदेश में वर्षा का औसत बीकानेर में 30 सेमी, बाड़मेर में 15 सेमी, जोधपुर में 35 सेमी. तथा जैसलमेर में 10 सेमी. रहता है। यह वर्षा जुलाई-सितम्बर के मध्य होती है। शीतकाल में पश्चिमी चक्रवातों से यहाँ कुछ वर्षा हो जाती है जिसे मावठ कहते हैं। कभी-कभी मरूस्थलीय प्रदेशों में पश्चिमी चक्रवातों से कुछ वर्षा होती है जिससे यहाँ तक कि बाढ़ भी आ जाती है।

वनस्पति - वनस्पति की दृष्टि से मरूस्थलीय वनस्पति ही यहाँ प्रधानतः होती है जो कम वर्षा और उच्च तापमान में अपना अस्तित्व बनाये रखने में समर्थ है। यहाँ छोटे पौधे, कंटीली झाड़ियों के अतिरिक्त बबूल, खेजड़ी, कीकर, नागफनी आदि पाई जाती है। यहाँ पाई जाने वाली घाँस में सीवन एवं तुरडिगम प्रमुख है। मरूस्थल के जिन भागों में जल उपलब्ध हो रहा है, वहाँ रोपित वनस्पति से पर्यावरण परिदृश्य में परिवर्तन आ रहा है।

मृदा - इस प्रदेश की मृदा उपजाऊ है किन्तु यह तभी सम्भव होता है जब उसे जल उपलब्ध होता है। यहाँ वायूढ़ मिट्टियाँ है। जिनका निर्माण वायु एवं अन्य अपरदन एवं अपक्षय से हुआ है तथा हवाओं द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जमा कर दी गई है। इसमें समुद्री प्रदेशों से उड़ाकर लाई गई मृदा भी सम्मिलित है। घग्घर प्रदेश में जलोढ़ मृदा है। इसी प्रकार लूनी बेसिन में भी जलोढ़ मृदा है। यहाँ की मृदा में जैविक पदार्थों की कमी और लवणता अधिक है। गंगानगर क्षेत्र में काँप मिट्टी है जबकि बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर और नागौर में लवणीय मृदा की प्रधानता है।

आर्थिक प्रारूप 
 राजस्थान के मरूस्थलीय प्रदेश में प्राकृतिक बाधाओं के होते हुए भी आर्थिक विकास की ओर यह प्रदेश अग्रसर है। यहाँ कृषि, पशुपालन, खनिज, उद्योग, परिवहन एवं विपणन का विकास क्रमिक रूप से हो रहा है।  कृषि का विकास मरूस्थलीय-प्रदेश में सीमित है। अधिकांशतः जहाँ कहीं वर्षा हो जाती है वहाँ बाजरा, चना, मोठ, मूँग आदि की फसल हो जाती है और वर्षा न हो ने से अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। किन्तु इस स्थिति में अब परिवर्तन आ रहा है विशेषकर जहाँ नहरी सिंचाई सुविधा उपलब्ध है। गंग नहर के पश्चात् इन्दिरा गाँधी नहर एवं भाखड़ा नहरों ने गंगानगर-हनुमानगढ़ जिलों को राज्य के अग्रणी कृषि उत्पादक जिलों में बदल दिया है। यह स्थिति बिकानेर जिले में और जैसलमेर में भी प्रारम्भ हो चुकी है। आज मरूस्थल का उत्तरी-पूर्वी सिंचित क्षेत्र गेहूँ, गन्ना, कपास, तिलहन, दलहन आदि के उत्पादन मे ं महत्ती भूमिका निभा रहा है। लूनी बेसिन में भी जवाई बाँध से सिंचाई द्वारा कृषि होती है। इसी के साथ ट्यूबवेल द्वारा भी अनेक भागों में सिंचाई हो रही है। असिंचित प्रदेश में आज भी बाजरा प्रमुख फसल है।

पशुपालन की दृष्टि से मरूस्थलीय क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है और वास्तव में पशु यहाँ की सम्पदा हैं जिस पर यहाँ के निवासियों का जीवन यापन होता है। विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों में भी यह क्षेत्र पशुपालन हेतु विख्यात है। ऊँट यहाँ का प्रमुख पशु है जिसका मरू-परिस्थितिकी से पूर्ण सामंजस्य है। बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर, नागौर, चूरू ऊँटों के लिए प्रसिद्ध है। गाय एवं बैलों की यहाँ उत्तम नस्लें पाली जाती है। बाड़मेर में काकरेज, जैसलमेर में थारपारकर, बीकानेर-गंगानगर में राठी नस्ल की गायें दूध के लिए प्रसिद्ध है। बीकानेर दुग्ध उद्योग का प्रमुख केन्द्र। बैलों के लिए नागौर सम्पूर्ण देश में विख्यात है। भेड़ पालन तथा बकरी पालन यहाँ अधिकता से होता है क्योंकि ये दोनों जानवर घटिया घास एवं किसी भी प्रकार की वनस्पति पर जीवित रह सकते हैं। भेड़ों से यहाँ ऊन उद्योग विकसित हुआ है। बीकानेर इसका प्रमुख केन्द्र है। जबकि बकरियाँ मांस के लिए अधिक पाली जाती है।

खनिज सम्पदा - इस प्रदेश में अनेक प्रकार के खनिज उपलब्ध है। जिप्सम के प्रमुख भण्डार बीकानेर के जायसर, लूनकरनसर क्षेत्र, नागौर, जोधपुर, चुरू, हनुमानगढ़ में हैं। लिग्नाइट कोयले का भण्डार बीकानेर के पलाना क्षेत्र में है। संगमरमर मकराना, परबतसर में, टंगस्टन नागौर के डेगाना में, चूने का पत्थर सोजत, गोटन, अटबड़ा, मूँडवा में, डोलोमाईट सीकर, जोधपुर में,तामड़ा सीकर के महवा, बागेश्वर में, मुल्तानी मिट्टी बीकानेर, बाड़मेर, जैसलमेर में उपलब्ध है। हाल ही में जैसलमेर जिले में तेल एवं गैस भण्डारों का पता चला है तथा तानोट और रामगढ़ में चार कुओं से गैस के भण्डार मिले हैं यहाँ खनिज तेल और गैस का उत्पादन प्रारम्भ हो गया है। अन्य क्षेत्रों में भी तेल और प्राकृतिक गैस आयोग द्वारा अनुसंधान जारी है तथा उसके उत्तम परिणाम निकलने की सम्भावना है। 

औद्योगिक दृष्टि से मरूस्थलीय प्रदेश पिछड़ा हुआ है। अधिकांशतः मध्यम श्रेणी के उद्योग एवं लघु उद्योग ही यहाँ विकसित हुए है। ऊन उद्योग, कालीन, नमदे, वस्त्रों की छपाई, रंगाई, जूतियाँ बनाना, कसीदाकारी आदि प्रमुख कुटीर उद्योग हैं। जोधपुर, बीकानेर, पाली, गंगानगर, हनुमानगढ़, खेतड़ी, सीकर प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। गंगानगर, हनुमानगढ़ और पाली जिले में सूती वस्त्र एवं कपास जिनिंग-प्रेसिंग मिले हैं। ऊनी वस्त्र उद्योग जोधपुर, बीकानेर, चूरु, नवलगढ़ में । चीनी की राज्य सरकार की मिल गंगानगर में है जिसके साथ डिस्टलरी भी है। तेल मिल अनेक स्थानों पर है। नमक उद्योग डीडवाना, साँभर, कुचामन एवं सुजानगढ़, में केन्द्रित है। मकराना संगमरमर उद्योग का केन्द्र है। सामान्यतया यह प्रदेश औद्योगिक दृष्टि से विकसित नहीं है किन्तु भविष्य में विकास की पर्याप्त सम्भावनाएं हैं।

परिवहन का विकास इस प्रदेश में मुख्यतया स्वतन्त्रता के पश्चात् ही हुआ है।
इस प्रदेश के प्रमुख रेल मार्ग है-
बीकानेर-जोधपुर-पाली-मारवाड़, जोधपुर - मेड़ता - फुलेरा -दिल्ली,
बीकानेर - रतनगढ़ - चुरु - दिल्ली, जोधपुर - बीकानेर - सूरतगढ़ - हनुमानगढ़ - भटिण्डा मार्ग,
सूरतगढ़ - अनूपगढ़, जोधपुर - जयपुर - सवाईमाधोपुर - कोटा,
जोधपुर - जैसलमेर, जौधपुर - अहमदाबाद, बाड़मेर - मुनाबाब रेल, मारवाड़ - अहमदाबाद। 

 सड़क परिवहन का पर्याप्त विकास विगत पचास वर्षों में हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग 15 गंगानगर से बीकानेर, बालोतरा, बाड़मेर होते हुए गुजरात के काँडला तक चला गया है। अन्य प्रमुख सड़क मार्गों में जोधपुर-अहमदाबाद सड़क मार्ग, जोधपुर - बीकानेर, बीकानेर -गंगानगर, जोधपुर - पाली - सिरोही, रतनगढ़ - नागौर - जोधपुर, गंगानगर - हनुमानगढ़ - सरदार शहर आदि है। जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर और गंगानगर जिलों में सीमावर्ती क्षेत्रीय विकास के अन्तर्गत सड़क मार्गों का विकास किया गया है। वर्तमान में सम्पूर्ण प्रदेश सड़क मार्गों से संयुक्त है और सभी नगर एवं कस्बे तथा बड़े ग्राम सड़कों से जुड़े हैं। वायु परिवहन की नियमित सुविधा केवल जोधपुर नगर में है, जो दिल्ली, जयपुर, बम्बई से वायु सेवा द्वारा जुड़ा हुआ है।

जनसंख्या
  राजस्थान का मरूस्थलीय प्रदेश अपेक्षाकृत कम जनसंख्या को प्रश्रय देता है क्योंकि यहाँ की प्राकृतिक परिस्थितियाँ कठोर है तथा आर्थिक विकास भी अपेक्षाकृत कम है। किन्तु यहाँ के निवासी कठोर परिश्रम से अपना जीवन यापन करते आये हैं और उन्होंने विशिष्ट सांस्कृतिक क्षेत्रों जैसे मारवाड़, बांगड़, शेखावाटी आदि का विकास किया है। इस प्रदेश में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार जौधपुर जिले की जनसंख्या सबसे अधिक 28.80 लाख अंकित की गई। इसके पश्चात् नागौर जिले की 27.74 लाख तथा सीकर की 22.87 लाख जनसंख्या थी। सबसे कब जनसंख्या जैसलमेर जिले की 5.079 लाख अंकित की गई। 

 सम्पूर्ण मरूस्थली प्रदेश में वर्ष 2001 में राज्य की 39.84 प्रतिशत जनसंख्या निवास करना पाया गया। इस प्रदेश में जनसंख्या घनत्व राज्य औसत 165 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. से केवल तीन जिलों झुंझुनूँ (323), सीकर (296) तथा गंगानगर (224) है। शेष जिलों में जनसंख्या घनत्व राज्य औसत से कम है। सबसे कम घनत्व जैसलमेर जिले में 13 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. है जो राज्य का न्यूनतम है।

  मरूस्थली प्रदेश में वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों की संख्या 8 थी। उनमे जौधपुर सबसे बड़ा नगर है। जिसकी जनसंख्या 8,56,034 अंकित की गई। अन्य एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर हैं- बीकानेर, गंगानगर, पाली, सीकर, हनुमानगढ़, चुरु और झुंझुनूँ। इस क्षेत्र के अन्य नगर बाड़मेर, जैसलमेर, जालौर, नागौर, रतनगढ़, बालोत्तरा, नवलगढ़, मुकन्दगढ़, पिलानी, सुनाजगढ़, सरदार षहर आदि है।
  मरूस्थलीय प्रदेश के उपर्यु क्त विवरण से स्पष्ट है कि राज्य का यह क्षेत्र प्राकृतिक कठिनाई से युक्त है किन्तु यहाँ के निवासी कर्मठ एवं परिश्रमी है और सदियों से यहाँ जीवन यापन कर रहे हैं। आर्थिक विकास सीमित हुआ है किन्तु इस दिशा मे निरन्तर प्रगति हो रही है, विशेषकर नहरों द्वारा सिंचाई के विस्तार ने मरुभूमि के विस्तृत भाग को हरा-भरा बना दिया है। कृषि, पशुपालन, उद्योग आदि विकसित हो रहे हैं। पर्यटन उद्योग में यहाँ निरन्तर वृद्धि हो रही है। जैसलमेर, जोधपुर तथा बीकानेर के पर्यटन स्थल विदेशियों के आकर्षण के केन्द्र हैं। निसन्देह इस प्रदेश के विकास की पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं।